Book Title: Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Prastavana Author(s): Dalsukh Malvania Publisher: L D Indology AhmedabadPage 45
________________ ( ५३ ) किया जाता है वैसे ही होना चाहिए । अंगबाह्यों का संबंध विविध वाचनात्रों से भी नहीं है और संकलन से भी नहीं है। उनमें जिन ग्रन्थों के कर्ता का निश्चित रूप से पता है उनका समय कता के समय के निश्चय से ही होना चाहिए। वाचना और संकलना और लेखन जिन आगमों के हुए उनके साथ जोड़ कर इन अंगबाह्य ग्रन्थों के समय को भी अनिश्चित कोटि में डाल देना अन्याय है और इसमें सचाई भी नहीं है। ___ अंगबाह्यों में प्रज्ञापना के कर्ता प्रायश्याम हैं अतएव प्रायंश्याम का जो समय है वही उसका रचनासमय है। प्रायश्याम को वीरनिर्वाण संवत् ३३५ में युगप्रधान पद मिला और वे ३७६ तक युगप्रधान रहे। अतएव प्रज्ञापना इसी काल की रचना है, इसमें संदेह को स्थान नहीं है। प्रज्ञापना आदि से अंत तक एक व्यवस्थित रचना है जैसे कि षट्खंडागम आदि ग्रन्य हैं। तो क्या कारण है कि उसका रचनाकाल वही न माना जाय जो उसके कता का काल है और उसके काल को वलभी के लेखनकाल तक खींचा जाय ? अतएव प्रज्ञापना का रचनाकाल ई० पू० १६२ से ई० पू० १५१ के बीच का निश्चित मानना चाहिए। ___ चन्द्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति और जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति --- ये तीन प्रज्ञप्तियां प्राचीन हैं इसमें भी संदेह को स्थान नहीं है। दिगंबर परंपरा ने दृष्टिवाद के परिकम में इन तीनों प्रज्ञप्तियों का समावेश किया है और दृष्टिवाद के अंश का अविच्छेद भी माना है। तो यही अधिक संभव है कि ये तीनों प्रज्ञप्तियां विच्छिन्न न हुई हों । इनका उल्लेख श्वेताम्बरों के नन्दी आदि में भी मिलता है। अतएव यह तो माना ही जा सकता है कि इन तीनों की रचना श्वेताम्बर-दिगम्बर के मतभेद के पूर्व हो चुकी थी। इस दृष्टि से इनका रचनासमय विक्रम के प्रारंभ से इधर नहीं आ सकता। दूसरी बात यह है कि सूर्य-चन्द्रप्रज्ञप्ति में जो ज्योतिष की चर्चा है वह भारतीय प्राचीन वेदांग के समान है। बाद का जो ज्योतिष का विकास है वह उसमें नहीं है । ऐसी परिस्थिति में इनका समय विक्रम पूर्व ही हो सकता है, बाद में नहीं । छेदसूत्रों में देशात, बृहत्कल्प और व्यवहार सूत्रों को रचना भद्रबाहु ने की थी। इनके ऊपर प्राचीन नियुक्ति-भाष्य आदि प्राकृत टीकाएं भी लिखी गई हैं। अतएव इनके विच्छे है की कोई कल्पना करना उचित नहीं है। धवला में कल्प-व्यवहार को अंगबाह्य गिना गया है और उसके विच्छेद की वहाँ कोई चर्चा नहीं है। भद्रबाहु का समय ई० पू० ३५७ के आसपास निश्चित है। अतः उनके द्वारा रचित दशाश्रुत, बृहत्कल्प और व्यवहार का समय भी वही होना १. सांप्रतकाल में उपलब्ध चन्द्रप्रज्ञप्ति और सूर्यप्रज्ञप्ति में कोई भेद नहीं दीखता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60