Book Title: Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Prastavana Author(s): Dalsukh Malvania Publisher: L D Indology AhmedabadPage 33
________________ ( ४१ ) वाइज्जा"-पृ० ६४। इससे यह भी पता लगता है कि 'मूल' में आवश्यक और दशवकालिक ये दो ही शामिल थे । इस सूची में 'मूलग्रन्थ' ऐसा उल्लेख है किन्तु पृथक् रूपसे आवश्यक और दशवकालिक का उल्लेख नहीं है-इसीसे इसकी सूचना मिलती है। जिनप्रभ ने अपने सिद्धान्तागमस्तव में वर्गों के नामकी सूचना नहीं दी किन्तु विधिमार्गप्रपा में दी है-इसका कारण यह भी हो सकता है कि उनकी ही यह सूझ हो, जब उन्होंने विधिमार्गप्रपा लिखी। जिनप्रभ का लेखनकाल सुदीर्घ था यह उनके विविधतीथंकल्प की रचना से पता लगता है। इसकी रचना उन्होंने ई० १२७० में शुरू की और ई० १३३२ में इसे पूर्ण किया। इसी बीच उन्होंने १३०६ ई० में विधिमार्गप्रपा लिखी है। स्तवन संभवतः इससे प्राचीन होगा। उपलब्ध आगमों और उनकी टीकाओं का परिमाणः ___ समवाय और नन्दीसूत्र में अंगों की जो पदसंख्या दी है उसमें पद से क्या अभिप्रेत है यह ठोक रूप से ज्ञात नहीं होता। और उपलब्ध आगमों से पदसंख्या का मेल भी नहीं है। दिगंबर षखंडागम में गणित के आधार पर स्पष्टीकरण करने का जो प्रयत्न है२ वह भी काल्पनिक ही है, तथ्य के साथ उसका कोई संबंध नहीं दीखता। अतएव उपलब्ध आगमों का क्या परिमाण है इसकी चर्चा की जाती है । ये संख्याएं हस्तप्रतियों में ग्रन्याग्ररूप से निर्दिष्ट हुई हैं। उसका तात्पर्य होता है-३२ अक्षरों के श्लोकों से। लिपिकार अपना लेखन-पारिश्रमिक लेने के लिए गिनकर प्रायः अन्त में यह संख्या देते हैं। कभी स्वयं ग्रन्थकार भी इस संख्या का निर्देश करते हैं ।३ यहां दी जानेवाली संख्याएं, भांडारकर ओरिएण्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट के वोल्युम १७ के १-३ भागों में आगमों और उनकी टीकानों की हस्तप्रतियों को जो सूची छपी है उसके आधार से हैं-इससे दो कार्य सिद्ध होंगे-श्लोकसंख्या के बोध के अलावा किस आगम की कितनी टीकाएं लिखी गईं इसका भी पता लगेगा। १. जै० सा० सं० इ०, पृ० ४१६. २. जै० सा० इ० पूर्वपीठिका, पृ० ६२१ ; षटखंडागम, पु० १३, पृ० २४७-२५४. ३. कभी-कभी धूर्त लिपिकार संख्या गलत भी लिख देते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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