Book Title: Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Prastavana Author(s): Dalsukh Malvania Publisher: L D Indology AhmedabadPage 19
________________ ( २७ ) के अभ्यास से यह पता चलता है कि पौराणिक महापुरुषों का अभेद विष्णु से और शिव से करना—यह भी उसका एक प्रयोजन था। प्रस्तुत में इन नामों से जैन तीर्थकर अभिप्रेत हैं या नहीं, यह विचारणीय है। शिव के नामों में भी अनन्त, धर्म, अजित, ऋषभ-ये नाम पाते हैं ,जो तत्तत् तीर्थंकरों के नाम भी हैं। __ शान्ति विष्णु का भी नाम है, यह कहा ही गया है। महाभारत के अनुसार उस नाम के एक इन्द्र और ऋषि भी हुए हैं। इनका संबन्ध शान्ति नामक जैन तीर्थंकर से है या नहीं, यह विचारणीय है। बीसवें तीर्थकर के नाम मुनिसुव्रत में मुनि को सुव्रत का विशेषण माना जाय तो सुव्रत नाम ठहरता है। महाभारत में विष्णु और शिव का भी एक नाम सुव्रत मिलता है। नामसाम्य के अलावा जो इन महापुरुषों का संबंध असुरों से जोड़ा जाता है वह इस बात के लिए तो प्रमाण बनता ही है कि ये वेदविरोधी थे। उनका वेदविरोधी होना उनके श्रमणपरंपरा से संबद्ध होने की संभावना को दृढ़ करता है। आगमों का वर्गीकरण : सांप्रतकाल में भागम रूप से जो ग्रन्य उपलब्ध हैं और मान्य हैं उनकी सूची नीचे दी जाती है। उनका वर्गीकरण करके यह सूची दी है क्योंकि प्रायः उसी रूप में वर्गीकरण सांप्रतकाल में मान्य है ११ अंग–जो श्वेताम्बरों के सभी संप्रदायों को मान्य हैं वे हैं १ आयार (प्राचार ), २ सूयगड ( सूत्रकृत), ३ ठाण ( स्थान ), ४ समवाय, ५ वियाहपन्नत्ति ( व्याख्याप्रज्ञप्ति), ६ नायाधम्मकहाओ ( ज्ञात-धर्मकथाः ), ७ उवासगदसायो ( उपासकदशाः ), ८ अंतगडदसाओ (अन्तकृद्दशाः), ६ अनुत्तरोववाइयदसानो (अनुत्तरौपपातिकदशाः), १० पण्हावागरणाई ( प्रश्नव्याकरणानि ), ११ विवागसुयं ( विपाकश्रुतम् ) ( १२ दृष्टिवाद, जो विच्छिन्न हुअा है )। १२ उपांग--जो श्वेताम्बरों के तीनों संप्रदायों को मान्य हैं १ उववाइयं ( औपपातिकं ), २ रायपसेणइज ( राजप्रसेनजित्कं ) अथवा रायपसेणियं ( राजप्रश्नीयं ), ३ जीवाजीवाभिगम, ४ पण्णवणा ( प्रज्ञापना ), ५ सूरपण्णत्ति ( सूर्यप्रज्ञप्ति ), ६ जंबुद्दीवपण्णत्ति (जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति), ७ चंदपण्णत्ति ( चन्द्रप्रज्ञप्ति), ८-१२ निरयावलियासुयक्खंध (निरयावलिकाश्रुतस्कन्ध ): ८ निरयावलियानो ( निरयावलिकाः ), ६ कप्पडिसियानो ( कल्पावतंसिकाः ), १. विशेष विस्तृत चर्चा के लिए देखिए-प्रो० कापडिया का ए हिस्ट्री ऑफ दी केनोनिकल लिटरेचर ऑफ जैन्स, प्रकरण २. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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