Book Title: Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Prastavana Author(s): Dalsukh Malvania Publisher: L D Indology AhmedabadPage 22
________________ ( ३० ) सत्तावन्नं अज्झयणा पन्नत्ता तं जहा-आयारे सूयगडे ठाणे।"-समवाय ५७वा। अर्थात् आचार आदि प्रत्येक की जैसे अंग संज्ञा है वैसे ही प्रत्येक की 'गणिपिटक' ऐसी भी संज्ञा थी ऐसा अनुमान किया जा सकता है । वैदिक साहित्य में 'भंग' ( वेदांग ) संज्ञा संहिताएं, जो प्रधान वेद थे, उनसे भिन्न कुछ ग्रन्थों के लिए प्रयुक्त है। भौर वहाँ 'अंग' का तात्पर्य है वेदों के अध्ययन में सहायभूत विविध विद्याओं के ग्रन्थ । अर्थात् वैदिकवाङमय में 'अंग' का तात्पर्यार्थ मौलिक नहीं किन्तु गौण ग्रन्थों से है। जैनों में 'अंग' शब्द का यह तात्पर्य नहीं है। प्राचार आदि भंग ग्रन्थ किसी के सहायक या गौण ग्रन्थ नहीं हैं किन्तु इन्हीं बारह ग्रन्थों से बननेवाले एक वर्ग को इकाई होने से 'अंग' कहे गये हैं। इसमें सन्देह नहीं। इसीसे आगे चलकर श्रुतपुरुष की कल्पना की गई और इन द्वादश अंगों को उस श्रुतपुरुष के अंगरूप से माना गया। अधिकांश जैनतीर्थकरों की परंपरा पौराणिक होने पर भी उपलब्ध समग्र जैनसाहित्य का जो आदि स्रोत समझा जाता है वह जैनागमरूप अंगसाहित्य वेद जितना पुराना नहीं है, यह मानी हुई बात है । फिर भी उसे बौद्धपिटक का समकालीन तो माना जा सकता है। डा० जेकोबी आदि का तो कहना है कि समय की दृष्टि से जैनागम का रचनासमय जो भी माना जाय किन्तु उसमें जिन तथ्यों का संग्रह है वे तथ्य ऐसे नहीं हैं जो उसी काल के हों। ऐसे कई तथ्य उसमें संगृहीत हैं जिनका संबंध प्राचीन पूर्वपरंपरा से है।४ अतएव जैनागमों के समय का विचार करना हो तब विद्वानों की यह मान्यता ध्यान में अवश्य रखसी होगी। जैनपरंपरा के अनुसार तीथंकर भले ही अनेक हों किन्तु उनके उपदेश में साम्य होता है और तत्तत्काल में जो भी अंतिम तीर्थंकर हों उन्हीं का उपदेश १ Doctrine of the Jainas, p, 73. २. नंदीचूर्णि, पृ० ४७; कापडिया-केनोनिकल लिटरेचर, पृ० २१. ३. "बौद्धसाहित्य जैनसाहित्य का समकालीन ही हैं"-ऐसा पं० कैलाशचन्द्र जब लिखते हैं तब इसका अर्थ यही हो सकता है। देखिये-जैन. सा. इ. पूर्वपीठिका, पृ० १७४. 8. Doctrine of the Jainas, p 15. ५. इसी दृष्टि से जैनागमों को अनादि-अनंत कहा गया है—च्चेइयं दुवालसंग गणिपिडगं न कयाइ नासी, न कयाइ न भवइ, न कयाइ न भविस्सइ, भुवि च भवइ च. भविस्सइ य, धुवे निअए सासए अक्खए अव्वए अवठ्ठिए निच्चे"-नन्दी, सू० ५८; समवायांग, सू०, १४८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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