Book Title: Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Prastavana Author(s): Dalsukh Malvania Publisher: L D Indology AhmedabadPage 23
________________ और शासन विचार और प्राचार के लिए प्रजा में मान्य होता है। इस दृष्टि से भ. महावीर अंतिम तीर्थकर होने से उन्हीं का उपदेश अंतिम उपदेश है और वही प्रमाणभूत है। शेष तीर्थंकरों का उपदेश उपलब्ध भी नहीं और यदि हो तब भी वह भ० महावीर के उपदेश के अन्तर्गत हो गया है-ऐसा मानना चाहिए । प्रस्तुत में यह स्पष्ट करना जरूरी है कि भगवान महावीर ने जो उपदेश दिया उसे सूत्रबद्ध किया है गणधरों ने। इसीलिए अर्थोपदेशक या अर्थरूप शास्त्र के कर्ता भ० महावीर माने जाते हैं और शब्दरूप शास्त्र के कर्ता गणधर हैं।' अनुयोगद्वारगत ( सू० १४४, पृ० २१६ ) सुत्तागम, अत्थागम, अत्तागम, अणंतरागम आदि जो लोकोत्तर आगम के भेद हैं उनसे भी इसी का समर्थन होता है। भगवान् महावीर ने यह स्पष्ट स्वीकार किया है कि उनके उपदेश का संवाद भ० पाश्र्वनाथ के उपदेश से है। तथा यह भी शास्त्रों में कहा गया है कि पाश्वं और महावीर के आध्यात्मिक संदेश में मूलतः कोई भेद नहीं है। कुछ बाह्याचार में भले ही भेद दीखता हो ।२ जैन परंपरा में आज शास्त्र के लिए 'आगम' शब्द व्यापक हो गया है किन्तु प्राचीन काल में वह 'श्रुत' या 'सम्यक् श्रुत' के नाम से प्रसिद्ध था ।३ इसी से 'श्रुतकेवली' शब्द प्रचलित हा न कि आगमकेवली या सूत्रकेवली। और स्थविरों की गणना में भी श्रुतस्थविर को स्थान मिला है वह भी 'श्रुत' शब्द को प्राचीनता सिद्ध कर रहा है। प्राचार्य उमास्वाति ने श्रुत के पर्यायों का संग्रह कर दिया है वह इस प्रकार है -श्रुत, प्राप्तवचन, आगम, उपदेश, ऐतिह्य, आम्नाय, प्रवचन और जिनवचन । इनमें से आज 'पागमा६ शब्द ही विशेषतः प्रचलित है। समवायांग आदि आगमों से मालूम होता है कि सर्वप्रथम भगवान महावीर ने जो उपदेश दिया था उसकी संकलना 'द्वादशांगो' में हुई और वह 'गणिपिटक' इसलिए १. अत्थं भासइ अरहा सुत्तं गंथति गणहरा निउणं । सासणस्स हियठाए तो सुत्त पवत्तइ । -आवश्यकनियुक्ति, गा० १९२; धवला भा० १, पृ० ६४ तथा ७२. २. Doctrine of the Jainas, p. 29. ३. नन्दी, सू० ४१. ४. स्थानांग, सू० १५६. ५. तत्त्वार्थभाष्य,१. २०. ६. • सर्वप्रथम अनुयोगद्वार सूत्र में लोकोत्तर आगम में द्वादशांग गिणिपिटक का समावेश किया है और आगम के कई प्रकार के भेद किये हैं-सू० १४४, पृ०. २१८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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