Book Title: Jain Sahitya Samaroha Guchha 1
Author(s): Ramanlal C Shah, Kantilal D Kora, Pannalal R Shah, Gulab Dedhiya
Publisher: Mahavir Jain Vidyalay
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भारतीय साहित्य को जैन साहित्य की देन
३४९.
चायने भी करीब ५०० वर्ष तक जनभाषा में ही रचनाएँ की । पर दूसरी शताब्दी में आचार्य उमास्वातिने संस्कृत के बढते हुए प्रभाव और आकर्षण को लक्ष्य में रखते हुए संस्कृत में सबसे पहले 'तत्त्वार्थसूत्र' नामक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ बनाया | उसके बाद तो प्राकृत के साथ-साथ संस्कृत भाषा में भी विविध विषय और प्रकार का जैनसाहित्य रचा जाता रहा और भारतीय व संस्कृत साहित्य में जैन संस्कृत साहित्य ने उल्लेखनीय स्थान प्राप्त कर लिया ।
जनभाषा में निरन्तर परिवर्तन होता रहता है । पूर्वी शताब्दी के लगभग प्राकृत से अपभ्रंश भाषा का विकास हुआ। जिस तरह प्राकृत भाषा का साहित्य सर्वाधिक जैनों का है उसी तरह अपभ्रंश साहित्य भी सब से अधिक जैनों का ही है । ८ वी ९वी शताब्दी से तो जैन कवियों ने अपभ्रंश में महाकाव्य और प्रबन्धकाव्य आदि बनाने प्रारम्भ कर दिये । यह क्रम वैसे १७ वी शताब्दी तक भी चलता रहा । पर १२ वी - १३ वी शताब्दी तक तो खूब जारो से चला। इसके बाद श्वेताम्बर जैन कवियों के राजस्थान और गुजरात में उस समय जो जनभाषा थी उसमें काव्यादिकी रचनाप्रारम्भ कर दी अतः १३ वी शताब्दी से श्वेताम्बर साहित्य 'मरु गुर्जर' भाषा में अधिक लिखा जाने लगा । दिगम्बर कवियोंने अपभ्रंश भाषा को लम्बे समय तक अपनाये रखा । १४ वी - १५ वी शताब्दी १-१ रचना मिश्रित या पुरानी हिन्दी में रचित दिगम्बर जैन कवियों की प्राप्त है । १६ वी शताब्दी से ईधर जनभाषा में प्रान्तीय भेद अधिक उभर कर सामने आया इस लिए श्वेताम्बर कवियों की लोक-भाषाओं की रचनाओं में जो १४ वी शताब्दी तक अपभ्रंश भाषा का प्रभाव रहा, वह क्रमशः कम होता गया । १६ वी शताब्दी से 'मरु गुर्जर' भाषा में राजस्थानी और गुजराती दोनों अलग सी होने लग गई । ईधर दिगम्बर कवियोंका झुकाव हिन्दी की ओर अधिक होने लगा, इसलिए दिगम्बर साहित्य हिन्दी में अधिक रचा गया और श्वेताम्बर राजस्थानी और गुजराती:
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