Book Title: Jain Sahitya Samaroha Guchha 1
Author(s): Ramanlal C Shah, Kantilal D Kora, Pannalal R Shah, Gulab Dedhiya
Publisher: Mahavir Jain Vidyalay

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Page 389
________________ श्रीमद् यशोविजयजीकृत 'समाधिशतक' एक अध्ययन डॉ. शेखरचन्द्र जैन . [१०२ दोहे (छंद)-भाषा मिश्रित गुजराती-राजस्थानी-हिन्दी का स्वरूप-सन् १९२६ में प्रकाशित 'आत्महितकर आध्यात्मिक वस्तुसंग्रह' में संग्रहित, प्रकाशक-श्री जैन श्रेयस्कर मंडल द्वारा शाह वेणीचंद सुरचंद महेसाणा.] शतक का प्रारम्भ आचार्य श्री सरस्वती का स्मरण करते हुए और जिनेश्वर भगवान की वंदना करते हुए करते हैं । दूसरी पंक्ति में ही अपना उद्देश्य स्पष्ट करते हुए लिखते हैं कि, "मात्र आत्मबोध के हेतु एक सुन्दर और सरस प्रबंध की रचना करूंगा।" इस प्रथम दोहे में ही कवि "जिन" अर्थात् जिन्होंने इन्द्रियविजय कर लिया है ऐसे तीर्थकर भगवंतों को प्रणाम तो करता ही है साथ ही वे "जिन" जगबंधु हैं अर्थात् संसार की इस भौतिक चकाचौंध एवं पुद्गल की भ्रमणा में वे ही एक सच्चे पथ-दर्शक बन्धु है । संसार की वासनायें, चार कषाय, पंच-पाप निरन्तर बाहर से आकर्षक लगते हैं पर उनकी कार्यप्रणाली संसार में भटकनेवाले पथभ्रष्ट करनेवाले दुश्मन सी ही है। ऐसे इस संसार में यदि सच्चा पथप्रदर्शक कोई है, मुक्ति की और हाथ पकडकर कल्याणमार्ग में रत करने वाला कोई है-तो वे बंधु जिनेश्वर ही हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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