Book Title: Jain Sahitya Samaroha Guchha 1
Author(s): Ramanlal C Shah, Kantilal D Kora, Pannalal R Shah, Gulab Dedhiya
Publisher: Mahavir Jain Vidyalay

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Page 390
________________ 'समाधिशतक - एक अध्ययन ३७१ मुनिश्री पुनः स्पष्टता करते हैं कि इस काव्य-कर्तृत्व के पीछे उनकी कोई लोकेषणा या वाह-वाह लूटना नहीं है। उनका मूल उद्देश्य तो "मात्र" आत्मबोध है । अर्थात् आत्मा के सच्चे स्वरूप, उसकी स्वांग सत्ता और उसके परिमार्जन के साथ परिवर्धन की ही बात है । मूलतः यह काव्य आत्मोन्नयन के लिए ही है । हाँ ! वह सरस होगा यहाँ सरस लौकिक दृष्टि या छंदशास्त्र की दृष्टि से भाषा, छंद, अलंकार या भाव की दृष्टि से काव्य सरस होगा । पर विरागी कवि यहाँ “सरस” शब्द के साथ कर्ता और पाठक दोनों का समन्वय साधता है । कर्ता को तो आत्मबोध और आत्मोन्नति में सहायक, काव्य सरस लगेगा ही - पर यह काव्यरचना उन्हें आत्मबोध और दर्शन की उत्कृष्ट अभिलाषा है । इस दृष्टि से भी इस काव्य में सरस कहने की भावना प्रकट की गई है । " 'समाधिशतक' का प्रत्येक दोहा "आत्मा" के बोध, उसकी महत्ता भेद, विज्ञान जैसे गहन विषयों पर बडी सरलता से प्रकाश डालता है । कहीं कोई द्वैतभाव नहीं । वह स्पष्ट मानते हैं कि "आत्मज्ञान" ही शिवपंथ के लिए परमार्थरूप है और वही सच्चा भाव निर्ग्रन्थ है | जिसने इस आत्मा में रमण क्रिया जो आत्मरत बन गया। संसार के सभी भोग निरर्थक हैं, वे उतना आनंद नहीं दे सकते जितना आत्ममग्न होने का भाव आनंद देता है- वह आत्मानंदी भाव ही कुछ और होता है । आत्मज्ञान में मग्न जीव को यह सारा संसार पुदूगल का तमाशा ही लगता है उसकी दृष्टि में संसार एक इन्द्रजाल ही है, जहां इस मन (जीव ) को कहीं मेल नहीं बैठता । हम सब संसारी जीव पुद्गल के मोह में काँच को (संसार को ) हीरा समज बैठे हैं। पर सत्य के प्रकट होने पर (आत्मज्ञान होने पर) कांच - कांचती रह जाता है ! सच्चा साध्य किसी भी प्रकार की एष्णा रक्खे बिना आत्मध्यान ( सच्चे www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only

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