Book Title: Jain Sahitya Samaroha Guchha 1
Author(s): Ramanlal C Shah, Kantilal D Kora, Pannalal R Shah, Gulab Dedhiya
Publisher: Mahavir Jain Vidyalay

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Page 397
________________ ३७८ जैन साहित्य समारोह रूप प्रकट होता है। यह जानते हुए भी कि इंन्द्रियों के विषयवासनाओं में इस चेतन का कोई भी हित नहीं होता है, फिर भी मोह के अंधेरे में अन्धा यह जीव उसी में रम रहा है। यहाँ कवि समार में रमनेवाले जीवों को मोह के अंधेरे में भटकने वाले अंधे के समान मानता है। ज्ञान भी तभी ग्रहण किया जा सकता है जब शावरणी कर्म का क्षय हो और शुभ योग प्राप्त हों। इसी लिए आचार्य कहते हैं कि जिसे शुभयोग प्राप्त नहीं हुआ है उसे उपदेश देना भी बेकार है । जब जीव स्वयं का ज्ञानदाता बन जायें, तभी निश्चय से ज्ञान प्राप्त हो सकता है। . संसार और देह निरन्तर नष्ट होने वाले पदार्थ हैं । जिस प्रकार आकाश में बादल बनते और बिगड़ते रहते हैं, जैसे कपूर क्षण में नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार इस देह का भी नाश होता है। इस लिए जो बुद्धिमान हैं वह देह को परिणति ही नहीं मानते । शरीर भले ही नष्ट हो जाये परन्तु चेतन तो अचल है, अनाशवान है, बुद्धजन उसी में अपना मन लगाता है। जिसका चित्त संसार की स्थिर और चलित वृत्ति में नहीं होता है, अर्थात् जिसका चित्त हर समय शमतायुक्त है उसे ही सच्चे सुख का अमृत प्राप्त होता है। आशा और आकांक्षाएं, संसारसुख की चाहना, जिसे अधिक हैं उसे न तो मुक्ति ही मिल सकती है और न संसार में ही संतोष मिल सकता है। मनुष्य के साथ निरन्तर मन और वचन की चंच. लता लगी रहती है, इस लिए वह इसी संसारचक्र से चिरा रहता है। जिसके साथ जन या संसार नहीं होता है वही मुनि सच्चा मित्र हो सकता है। आत्मदशी, आत्मारूपी बस्ती में ही स्वयं को केन्द्रित करता है, अर्थात् आत्मदर्शी जीव आत्मरमण में ही या शुद्ध आत्मा को ही तपस्या का केन्द्र बनाता है। जब किं अबोध दुविधा में होने के कारण नगर ओर वर्ण की उलझन में उलझे रहते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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