Book Title: Jain Sahitya Samaroha Guchha 1
Author(s): Ramanlal C Shah, Kantilal D Kora, Pannalal R Shah, Gulab Dedhiya
Publisher: Mahavir Jain Vidyalay
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'समाधिशतक'-एक अध्ययन .. जो इस देह से उपर उठ गया वही विदेह पद का स्वामी बन सकता है । अर्थात् जिसने इस देह की ममता त्याग दी, चैतन्य में लीन हो गया, वही साधना में ऊँचा उठ पाता है। मनुष्य का सबसे बड़ा गुरु उसकी आत्मा है जो स्वयं में, स्वयं के सन्मुख प्रकट होकर या सिद्ध होकर शिव-पद प्रदान कराता है। इसी लिए मनुष्य का सच्चा गुरु आत्मज्ञान के सिवाय और कुछ नहीं हो सकता। सच्चा साधक आत्मा में ही या निजभाव में ही सोता है, अर्थात् जिसने जगत के व्यवहार से चर्मचक्षुओं कों फेर लिया है और अन्तर्मुखी हो गया है उसे ही आत्मदर्शन होता है। ऐसा जीव अन्तर के चेतन में ही अचल दृढ भाव धारण कर लेता है और आत्मज्ञान की धुरी पर घूमता हुआ दृढ अभ्यास द्वारा उस अवस्था पर पहुंचता है जहां उसे पत्थर भी तृण के समान · लगता है अर्थात् कषाय आदि पत्थरों को गलाकर वह निर्भार और हल्कापन अनुभव करता है। ऐसा जीव स्वयं को देह से भिन्न मानता है। इन दो पदों में आचार्य ने देह, संसार इसकी असारता और आत्मा के प्रति दृढता पर जोर दिया है । आत्मलीन व्यक्ति ही मुक्ति प्राप्त कर सकता है शिवरागी जीव पुण्य-पाप, वृत्त, अवृत्त, सबको त्याग देता हैं । प्रारम्भ में अवृत्त और बाद में वृत्तों का भी त्याग करता है । व्यवहारिक दृष्टि से परम भावों की प्राप्ति के हेतु वह अवृत्तों को छोड़ता है, वृत्तों को धारण करता है, अर्थात् पाप को छोड़कर पुण्य को ग्रहण करता है। लेकिन अर्हत् भावों में पहुँचने पर वह इन वृत्तों को भी त्याग देता है क्योंकि वृत्त और अवृत्त ये तो संसार के ही कारण हैं । निश्चय मुक्ति के लिए इनका त्याग आवश्यक है। जो अवृत्ती हैं वे वत्तों को धारण करते हैं और वृत्ती ज्ञान और गुण दोनो को अपनाता है। लेकिन, परमात्मा में स्थिर जीव सब को त्याग कर परम आत्मा बन जाता है। इन पदों में पुण्य और पाप दोनों को हेय मोन कर निश्चय दृष्टि से परम आत्माः की बात प्रस्तुत की है।
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