Book Title: Jain Sahitya Samaroha Guchha 1
Author(s): Ramanlal C Shah, Kantilal D Kora, Pannalal R Shah, Gulab Dedhiya
Publisher: Mahavir Jain Vidyalay

View full book text
Previous | Next

Page 393
________________ ३७४ जैन साहित्य सम्मसेह और पर के अंतर को जानता है। इस दोहे में कवि उस तथ्य पर प्रकाश डाल रहा है जहाँ अज्ञानी जीव अग्राह्य (संसारको ग्राह्य मानकर उस में चिपका है। और ग्रहाय (आत्मा) को भूल रहा है। जव कि समाधिस्थितिजीव स्व-पर के निर्णय की शक्तिवाला होने से ग्राह्य - अग्राह्य के भेद को समझाता है। अज्ञानी जीव की स्थिति ठीक उस अनभिज्ञ व्यक्ति की भाँति होती है जो सीप की चमक में चांदी के भ्रम से उसे चांदी मानता है। उसी तरह इस देह को ही भ्रमवश सर्वस्व समझ लेता है। परन्तु, ज्ञानदृष्टि के प्राप्त होते ही उसका सीप में से चांदी का भ्रम दूर हो जाता है। और देह में आत्मा का भृम भी दूर हो जाता है। अर्थात् वह सत्य की दृष्टि से परखने लगता है। यों कह सकते हैं कि भ्रम के बादल छूटते ही सत्य का सूर्य प्रकाशित हो जाता है । ज्ञान के प्रकाश के बिना जागते हुए भी हम सो रहे है । ज्ञानी वही है जो मन-वचन और कार्य से एक चित्त हो अर्थात् जिसकी दृष्टि कथा न और क्रिया समोन हो । जो व्यावहारिक क्रियाओं को करते हुए भी निश्चय को ही साध्य मानता है। ज्ञानी पुरुष, जिसने आत्म-रमण किया है उसकी दृष्टि में संसार के प्रति कोई मोह या कोई : सम्बन्ध नहीं होता। भौतिक जगत से उपर उठकर उसके लिए यह संसार मात्र उन्मत्त और दृष्टि . हीन है। यहां उन्मत्तता और अंधत्व भोग-विलास और भेद-विज्ञान की दृष्टि के अभाव का द्योतक है। साधक जो ज्ञान प्राप्त कर रहा है वह व्यवहारिक दृष्टि से प्राप्त कर रहा है। लेकिन, जब वह निर्विकल्प आत्मभाव में प्रवेश करता है तब कोई द्विद्या भाव उसे अच्छे नहीं लगते अर्थात् वह विकल्पों से मुक्त हो जाता है। आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार आत्मलीन साधक बहिरात्मा को छोड़कर अन्तः रात्मा में प्रवेश करता है और परमात्मा के ध्यान में स्वयं को आरुढ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413