Book Title: Jain Sahitya Samaroha Guchha 1
Author(s): Ramanlal C Shah, Kantilal D Kora, Pannalal R Shah, Gulab Dedhiya
Publisher: Mahavir Jain Vidyalay
View full book text
________________
नैतिक और धार्मिक कर्तव्यता का स्वरूप
३६९ कर्तव्यता के आधार पर ही खींचा जा सकता है। हमारे कर्तव्य और दायित्व दो प्रकार के होते हैं, एक जो दूसरों के प्रति है, और दूसरे जो अपने प्रति हैं। जो दूसरों अर्थात् समाज के प्रति हमारे दायित्व हैं वे नैतिकता की परिसीमा में आते है अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह के व्रतों का बाह्यया व्यवहारपक्ष हैं। उसका पालन नैतिक कर्तव्यता है, जबकि समभाव, दृष्टाभाव, या साक्षीभाव जिसे जैन पारिभाषिक शब्दावली में “सामायिक” कहा गया है, की साधना धार्मिक कर्तव्यता है । जैन धर्म में आचार के और पूजा-उपासना के जो दूसरी प्रक्रियाएँ हैं उनका महत्त्व या मूल्य इसी बात है कि समभाव जो हमारा सहज स्वभाव की उपलब्धि में किस सीमा तक सहायक है। यदि, हमें जैन धर्म में नैतिक और धार्मिक कर्तव्यता का अति संक्षेप कहना हों वह उन्हें क्रमशः "अहिंसा" और "समता" के रूप में कहा जा सकता है। उसमें अहिंसा सामाजिक या नैतिक कर्तव्यता की सूचक है और समता (सामायिक) धार्मिक कर्तव्यता की सूचक हैं।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org