Book Title: Jain Sahitya Samaroha Guchha 1
Author(s): Ramanlal C Shah, Kantilal D Kora, Pannalal R Shah, Gulab Dedhiya
Publisher: Mahavir Jain Vidyalay
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नैतिक और धार्मिक कर्तव्यता का स्वरूप
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है । धर्म न तो नैतिकता- विहीन है और तो नैतिकता धर्मविहीन है । ब्रेडले के शब्दो में यह असम्भव है कि एक व्यक्ति धार्मिक होते हुए अनैतिक आचरण करे । ऐसी स्थिति में या तो वह धर्म का ढोंग कर रहा है या उसका धर्म ही मिथ्या है । कुछ लोग धर्म और नैतिकता का अन्तर इस आधार पर करते हैं कि नैतिकता का क्षेत्र शुभाशुभ का क्षेत्र है । जहाँ तक शुभ और अशुभ का संघर्ष है वहाँ तक नैति कता का क्षेत्र है । धर्म के क्षेत्र में शुभ और अशुभ का द्वन्द्व समास हो जाता है । क्यों कि धार्मिक तभी हुआ जा सकता है, जबकि व्यक्ति अशुभ से पूर्णतया विरत हो जाये और जब अशुभ नहीं रहता तो शुभ भी नहीं रहता । जैन दार्शनिकों में आचार्य कुन्दकुन्द ने पुण्य (शुभ) और पाप (अशुभ) दोनों से ऊपर ऊटने का निर्देश दिया था । यद्यपि, हमें यह स्मरण रखना होगा कि अशुभ से निवर्तन के लिए, प्रथम शुभ की साधना आवश्यक है । धर्म का क्षेत्र पुण्य-पाप के अतिक्रमण का क्षेत्र है; अतः वह नैतिकता से ऊपर है, फिर भी हमें यह मानना होगा कि धार्मिक होने के लिए जिन कर्तव्यों का विधान किया गया है वे स्वरूपतः नैतिक ही है । जैन धर्म पांच व्रतों, बौद्ध धर्मं के पंच शीला और योगदर्शन के पंच यमों का सीमाक्षेत्र नैतिकता का सीमाक्षेत्र ही है । भारतीय परम्परा में धार्मिक होने के लिए नैतिक होना आवश्यक है । इस प्रकार आचरण की दृष्टि से नैतिक, कर्तव्यता प्राथमिक है और धार्मिक कर्तव्यता परवर्ती है । यद्यपि, नैतिक और धार्मिक दोनों ही प्रकार के कर्तव्यों की बाध्यता का उद्भव कर्म के नियम से होता है । अतः इन कर्तव्यों की बाध्यता का मूलतः धार्मिकही है।
कुछ पाश्चात्य विचारकों की यह मान्यता है कि बिना धार्मिक कर्तव्यों का पालन किये भी व्यक्ति सदाचारी हो सकता है । सदाचारी जीवन के लिए धार्मिकता अनिवार्य तत्व नहीं है । आज साम्यवादी देशों में इसी धर्मविहीन नैतिकता का पाठ पढ़ाया जाता है। यदि,
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