Book Title: Jain Sahitya Samaroha Guchha 1
Author(s): Ramanlal C Shah, Kantilal D Kora, Pannalal R Shah, Gulab Dedhiya
Publisher: Mahavir Jain Vidyalay

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Page 385
________________ ३६६ जैन साहित्य समारोह एलेक्जेण्डर के शब्दों में धार्मिक होना इससे अधिक कर्तव्य नहीं है, जैसे कि भूखा होना कोई कर्तव्य है। जिस प्रकार भूख एक मात्र सांवेगिक अवस्था है, उसी प्रकार धर्म भी एक सांवेगिक अवस्था है। विलियम जेम्स का कहना है कि " यदि हमें धर्म का कोई निश्चित अर्थ लेना है तो हमें उसे भावनाओं के अतिरेक और उत्साहपूर्ण आलिंगन के अर्थ में लेना चाहिए । जहाँ तथाकथित नैतिकता केवल सिर झुका देती है और राह छोड़ देती है । वस्तुतः भारत में धर्म और नैतिकता दो अलग-अलग तथ्य नहीं रहे हैं। मानवी चेतना के भावनात्मक और संकल्पात्मक पक्षों को चाहें एक-दूसरे से पृथकू देखा जा सकता हो, किन्तु, उन्हें एक-दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता । भावना, विवेक और संकल्प, मानवीय चेतना के तीन पक्ष हैं। चूंकि मनुष्य एक समग्रला है, अतः ये तीनों पक्ष एक-दूसरे के साथ मिले हुए हैं। इसीलिए मेथ्यू आरनोल्ड को यह कहना पड़ा था कि भावनायुक्त नैतिकता ही धर्म है । पश्चिम में यह प्रश्न भी महत्त्वपूर्ण रूप से चर्चित रहा है कि धार्मिक और नैतिक कर्तव्यों में कौन प्राथमिक है ? डेकार्ट, लोक प्रभृति अनेक विचारक नैतिक नियमों को ईश्वरीय आदेश से प्रतिफलित मानते है और इस अर्थ में वे “धर्म का नैतिकता से प्राथमिक मानते हैं, जब की कोण्ट, मार्टिन्यू आदि नैतिकता पर धर्म को अधिष्ठित करते हैं। कांण्ट के अनुसार "धर्म, नैतिकता पर आधारित है और ईश्वर का अस्तित्व नैतिकता के अस्तित्व के कारण है । जहाँ तक भारतीय चिन्तन और विशेष रूप से जैन परम्परा का प्रश्न है वे धर्म और नैतिकता को एक-दूसरे से पृथकू नहीं करते हैं। आचारोप्रथमोधर्मः के रूप में नीति की प्रतिष्ठा धर्म के साथ जुड़ी हुई है। जैन दर्शन की भाषा में कहें तो दोनों अन्यान्याश्रितः है। सम्यकू चरित्र का आधार सम्यग्दर्शन है और सम्यग्चरित्र के अभाव में सम्यक्दर्शन नहीं होता है। सदाचरण के बिना सभ्यश्रद्धा और सम्यश्रद्धा के बिना सदाचरण सम्भव नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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