Book Title: Jain Sahitya Samaroha Guchha 1
Author(s): Ramanlal C Shah, Kantilal D Kora, Pannalal R Shah, Gulab Dedhiya
Publisher: Mahavir Jain Vidyalay
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भारतीय साहित्य को जैन साहित्य की देन की अपनी उल्लेखनीय विशेषता है। पद्यरचनाओं के साथ साथ गद्यमें भी उन्होंने काफी रचनाएं की हैं और उसमें बिविध प्रकार की गद्यशैलियों का दर्शन होता है। महाकाव्य, प्रबन्धकाव्य, खण्डकाव्य आदि विद्याओं को ही नहीं, उन्होंने जितनी भी विद्याएँ और शैलियाँ अपने समय में प्रचलित व प्रसिद्ध देखी, उन सभी को अपना लिया। इस तरह की केवल राजस्थानी साहित्य की विद्याओं या रचनाप्रकारों की मैंने जब 'सूचि' बनायी 'तो' उनकी संख्या १२५ से भी उपर पहुँच गयी जैसे रास, चौपई, फाग, सम्बन्ध, प्रबन्ध, धवल, विवाहला, बावनी, शतक, बहुत्तरी, अष्टोत्तरी, छत्तीसी, बत्तीसी, पचीसी, वीसी, बारह, मासा आदि संख्याप्रधान तथा अनेक ढालो अर्थात् देशियां, लोकगीतों की चालो और रागरागिनियाँ आदि में छोटीबडी हजारों रचनाएं की हैं। गीत, स्तवन, सज्झाय, बधावा, गहुंली, हियाली आदि कितने और भी रचनाप्रकार विद्याएं या शैलियाँ अनेक हैं और उनकी परम्परा भी लम्बे समय तक चलती रही है। जिससे उन रचनाप्रकारों या विद्याओंके विकास का अध्ययन भी ऐसी जैन रचनाओं के अध्ययन के द्वारा ही ठीक से हो सकता है। जैसे 'रास' नामक 'विद्या' को ही ले तो इसका प्राचीन रूप कैसा रहा, कब, किस तरह परिवर्तन हुआ एवम् विकास हुआ, अपभ्रंशकाल से लेकर वर्तमान तक के करीब ९०० वर्षों में सहाधिस्रक 'रास' संज्ञा की रचनाएं जैन कवियोंने बनायी हैं। उससे रास की परम्परा का जितना अच्छा अध्ययन हो सकता है, उतना जैनेतर रचनाओं से नहीं हो सकता क्योंकि उनकी कडियाएं टूटती रही हैं, अर्थात् बीचबीच में कुछ रचनाएं होती रही पर जिस तरह जैनों की रचनाएं प्रत्येक शताब्दी व प्रत्येक चरण की उपलब्ध हैं, वैसी जैनेतरों की नहीं। उदाहरणार्थ-बारहमासा जो एक लोकप्रिय विद्या है। प्रत्येक शताब्दी के प्रत्येक चरण के बारहमासे जैनेतरों का नहीं मिलेंगे, जैनों के मिल जायेंगे। प्रत्येक विद्या की प्राचीन रचनाएं भी जैनो की ही सुरक्षित रह सकी हैं। क्योंकि साहित्य का केवल निर्माण ही नहीं, उसका
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