Book Title: Jain Sahitya Samaroha Guchha 1
Author(s): Ramanlal C Shah, Kantilal D Kora, Pannalal R Shah, Gulab Dedhiya
Publisher: Mahavir Jain Vidyalay
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जैन साहित्य समारोह
अतः प्राकृत, अपभ्रंश, हिन्दी, राजस्थानी, गुजराती इन पाँचो भाषाओं के विकास का ठीक से अध्ययन, जैन साहित्य के समुचित अध्ययन के बिना नहीं हो सकता ।
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में ।
उत्तर - भारत की तरह दक्षिण भारत को दो प्रधान भाषाएँ तमिल, और कन्नड में भी प्राचीन और महत्त्वपूर्ण साहित्य जैन का हीं उपलब्ध है, अतः कन्नड और तमिल साहित्य के विकास में भी जैनों का उल्लेखनीय योगदान है ही । वैसे अन्य प्रान्तीय भाषाओं में सिन्धी, "पंजाबी, तेलगु, मराठी और बंगला आदि में भी जैनो ने रचनाएँ की है । इस तरह भारत की सभी प्रधान प्रान्तीय भाषाओ में जैन साहित्यको उपलब्धि, विशेष रूप से उल्लेखनीय है । भारतीय साहित्यको - जैनो की यह देन उल्लेखनीय है ही ।
जैन साहित्य की दूसरी विशेषता है विविधता और रचनाप्रकारों की अधिकता । हम देखते हैं कि पद्यमे जैन साहित्यकारों में - सबसे अधिक आचार्य और मुनिगण रहे हैं । और उनका मुख्य उद्देश्य और कार्य धर्मप्रचार का रहा है। फिर भी उन्होंने जनरुचि और उनकी आवश्यकता का बहुत अधिक ध्यान रखा। यहां तक कि जिन विषय में साहित्य ग्रन्थरचना आगमिक दृष्टि से विधेय नहीं थी, उन विषयो में भी उन्होंने अपनी कलम चलाये रखी । इसीका परिणाम है कि धार्मिक और दार्शनिक साहित्य के अतिरिक्त भी व्याकरण, छन्द, अलंकार, काव्य, वैदक, ज्योतिष, मंत्र-तंत्र, गणित आदि अनेक विषयों की बहुत सी उल्लेखनीय रचनाएं जैन साहित्य में प्राप्त है । फलतः जैन - साहित्य केवल जैनों के लिये ही उपयोगी नहीं पर सर्वजनोपयोगी है । - कई विषयो के तो ऐसे उच्च कोटि के महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ जैनों के रचित प्राप्त है कि उस कोटि के और जैसे उपयोगी ग्रन्थ जैनेतर साहित्य में भी नहीं मिलते हैं ।
इसी तरह रचना प्रकारो या विद्याओंकी दृष्टि से भी जैन साहित्य
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