Book Title: Jain Sahitya Samaroha Guchha 1
Author(s): Ramanlal C Shah, Kantilal D Kora, Pannalal R Shah, Gulab Dedhiya
Publisher: Mahavir Jain Vidyalay

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Page 373
________________ ३५४ ___ जैन साहित्य समारोह और अर्थ को पकडने या जानने में बहुत दिक्कत हो जाती है इस समस्या का आंशिक हल जैन साहित्य द्वारा किया जा सकता है। . लोक-संगीत और धूनें भी जिस रूप और परिमाण में जैन कवियोंने अपनायी उससे हजारो लोकगीतो, भजनो और उनकी शेष प्रणालियों की जानकारी मिल जाती है, जैसे राजस्थानी, गुजराती जैन कवियो ने अपने रास, स्तवन, चौपाई आदि रचनाओं के प्रारम्भ में इस बात का उल्लेख किया है कि यह ढाल या गीत किस लोकगीत की देशी तर्ज या रागिनी में गाया गया उन्होंने अपनी रचना में उस लोकगीत की प्रथम पंक्ति या कुछ पद्य भी उदधृत कर दिये गये हैं, जिससे कौन सा लोकगीत या भजन किस प्रदेश में किस समय अधिक प्रसिद्ध था, इस पर महत्त्वपूर्ण प्रकाश पडता है । मैंने ऐसे कई लोकगीतों के सम्बन्ध में लेख लिखे हैं और यह बतलाने का प्रयास किया है कि कौनसा लोकगीत कितना पुराना है। किस कित जैन कविने अपनी किस संवत की रचना में उसकी तर्ज का उपयोग किया है ? इससे उस लोकगीत की प्रसिद्धि व प्राचीनता सिद्ध होती है। इसी तरहकी खोज के लिये जैन रचनाएँ ही एक मात्र साधन है । कई लोकगीत व भजन तो जैन लेखकोने पूर्ण रूप में भी लिखकर रखे हैं। मैंने ऐसे उमारे, मदियानी, कतमल, सुपियारदे आदि के प्राचीन गीत प्रकाशित भी कर दिये हैं । ऐसी २५०० देशियों की एक सूचि प्रमुख रागादि के प्रमाण सहित जैन गुर्जर कवियों के तीसरे भाग के परिशिष्ठ में प्रकाशित हो चुकी है और अभी इस सूचि को सहज ही दुगुनी-तिगुनी बनायी जा सकती है। . जैन समाज में आज भी एसी सैंकडो लोकधूने प्रचलित हैं और उनसे जनता का बहुत मधुर राग-रागिनियों का रस प्राप्त होता है। जैन रास आदि ग्रन्थों में हजारो कहावतों और मुहावरों का प्रयोग हुआ है और बहुत से ऐसे शब्द भी प्रयुक्त मिलते हैं, जो आज Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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