Book Title: Jain Sahitya Samaroha Guchha 1
Author(s): Ramanlal C Shah, Kantilal D Kora, Pannalal R Shah, Gulab Dedhiya
Publisher: Mahavir Jain Vidyalay

View full book text
Previous | Next

Page 378
________________ भारतीय साहित्य को जैन साहित्य की देन बृहद् इतिहास तैयार करने की योजना सन '५३ में बनी थी। 'जैन, साहित्य का इतिहास'-पूर्वपीठिका के प्राक्कथन में डॉ. वासुदेव शरणजी अग्रवाल ने लिखा है कि लगभग ५ वर्ष पूर्व मेरे मन में जैन साहित्य के बृहत् इतिहासनिर्माण का एक विचार उत्पन्न हुआ था। काशी के जैन विद्वानो में उसके प्रति उत्साह उत्पन्न हुआ। मुझे इस बात की अत्यंत प्रसन्नता हुई कि श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों मान्यताओं के अनुभवी विद्वानोने उसका स्वागत किया। तदनुसार पार्श्वनाथ आश्रम की और से श्री दलसुखभाई मालवणिया की देखरेख में जैन साहित्य का इतिहास, ५ भागों में लिखा जाने लगा। दूसरी और स्वगीय श्री महेन्द्रकुमारजी जैनने श्री वर्गो जैन ग्रन्थमाला की और से अपने सहभागियों के साथ इस साहित्य का इतिहास दिगम्बर सामग्री के आधार पर विरचित करने का संकल्प किया, किन्तु वे अकालमें ही स्वर्गवासी हो गये। उनके घनिष्ठ सहयोग एवम् पं. कैलासचन्द्रजीने उस पवित्र संकल्प को अपनी श्रमशीलता व लगन से उसे मूर्त रुप भी दे डाला। फलस्वरूप जैन साहित्य के इतिहास की यह पूर्वपीठिका विद्वानो के सामने आ रही है। मान्यवर पं. कैलासचन्द्रजी उसी योजना को आगे बढ़ाते हुए 'जैन साहित्य का इतिहास' दो भागो में तैयार करके 'वर्णो ग्रन्थमाला'को प्रकाशनार्थ दे दिया था जो पीठिका के प्रकाशन के १२ वर्ष बाद डॉ. दरबारीलालजी कोढिया के विशेष प्रयत्न से अभी अभी प्रकाश में आये है। इसके प्रथम भाग में करुणानुराग-विषयक जैन साहित्य का इतिहास व विवरण दिया गया है और दूसरे भाग में भूगोल-खगेल व द्रव्यानुयोगविषयक साहित्य का विवरण दिया गया है । वास्तव में एक अधिकारी व अध्ययनशील विद्वान का यह प्रयत्न बहुत ही सराहनीय है। देर सबेर उन का जो ग्रन्थ प्रकाश में आ गये, उसके लिये श्री कोढियाजी बहुत ही धन्यवाद के पात्र है. पर कैलासचन्द्रजी के पूर्व पीठिका और इन दोनो भागो से दिगम्बर जैन साहित्य के इतिहास Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413