Book Title: Jain Sahitya Samaroha Guchha 1
Author(s): Ramanlal C Shah, Kantilal D Kora, Pannalal R Shah, Gulab Dedhiya
Publisher: Mahavir Jain Vidyalay
View full book text
________________
भारतीय साहित्य को जैन साहित्य की देन
अमरचन्द बाहटा
साहित्य शब्दकी व्यापक व्याख्या है, जो जनता का हित सम्पादन करता हो अर्थात् स्व-पर कल्याण हित का जिस रचना या वाक्यसमूह में समावेश हो, उसे साहित्य कहा जाना चाहिये । साहित्य की एक परिभाषा यह है कि जो हित सहित हो । 'हित किसका ? अपना और सबका' ('नवनीत' अगस्त १९७५, पृष्ठ ८८) इस व्यापक अर्थ में जैन साहित्य का महत्त्व सर्वाधिक बढ़ जाता है। वैसे साहित्यकारोंने जो 'साहित्य' शब्द की संकुचित व्याख्या काव्यादिमें ही कर रखी है वह उचित नहीं लगती क्योंकि सन्तों के साहित्य का उस व्याख्या में समावेश नहीं होता, न लोकसाहित्य का ही । इससे वास्तव में 'साहित्य' शब्द के मूल भाव या अर्थ में बहुत बडी क्षति पहूँचती है क्योंकि भारत तो संत-महात्मा और महापुरुषो का देश है और जनता के नैतिक उत्थान में उन्हीं की वाणी का सबसे अधिक प्रभाव रहा है । इसी तरह लोकसाहित्य में जनहृदय एवं संस्कृति की गहरी अनुभूति मिलती है। उसे भी साहित्य से अलग कर देना किसी भी तरह उचित नहि । शिष्ट साहित्य को वैसे उच्च स्तर का साहित्य कहा जा सकता है, पर लोकसाहित्यमें भी एसी वहुत सी विशेषताएँ हैं, कल्पना को ऊंची उठानी है, जो वहुत बार तो शिष्ट साहित्य को भी मात कर देती है और उससे विशिष्ट ही नजर आती है। जिस साहित्य से जनता को कोई सत्प्रेरणा नहि मिलती, उस बुद्धिविनोद और विलासवाले साहित्य से जनता का हित नहि हो सकता। इस दृष्टि से जैन साहित्य का अपना विशिष्ट महत्त्व है। वह विषय-विकार के दोषो को तनिक भी प्रोत्साहन नहि देता।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org