________________
गद्यग्रंप
'वृत्ति उरै' के बाद ही 'कारिक उरै' (व्याख्या) की रचना हुई होगी । कारिक की व्याख्या में 'वृत्ति उरै' की बातें उद्धृत की गयी हैं। विद्वानों का एक मत है कि 'वृत्ति उरै' ही श्रेष्ठ है। दोनों व्याख्याओं के रचयिता एक हों या दो, वे जैन पण्डित थे-इसमें सन्देह नहीं । 'वृत्ति उरै ( याप्परुंगल वृत्ति की ध्याख्या) के रचयिता बारबार आचार्य मायेच्चुरर् (मायेश्वर) को शिवजी के नाम के साथ उल्लिखित करते हैं। इसलिए कुछ विद्वानों का मत यह रहा कि 'वृत्ति उरै' के लेखक शैव थे। पर यह निर्णय तथ्य से दूर पड़ता है। यह तो केवल जैन पण्डित की उदारता का परिचायक है। आचार्य मायेच्चुरर् ने एक छंदःशास्त्र की रचना की, जो 'मायेच्चुरर याप्पु' के नाम से प्रसिद्ध है। माचार्य मायेच्चुरर् की शिष्य परम्परा में 'वृत्ति उरै' के रचयिता गुणसागर रहे होंगे, इसीलिए आदरपूर्वक अपने प्राचार्य की चर्चा कर अपना आभार प्रकट किया होगा।
शब्दालंकार की मौलिक बातों से अवगत होने के लिए 'वृत्ति उरै अत्यन्त उपयोगी रचना है। पल्लवकालीन तमिल साहित्यधारा का परिचय प्राप्त करने के लिए यह व्याख्या अत्यंत सहायक है। पल्लव नरेशों की कई प्रशस्तियां इस व्याख्या में हैं जो छंदों के लक्षण-उदाहरणों के रूप में उद्धत हैं। गणसागर का बहुभाषाज्ञान ___व्याख्याकार आचार्य गुणसागर 'पणित्तियम्' नामक प्राकृत व्याकरण, छंदोपिशितम्, गुणसांख्यम्, (कन्नड छंदग्रन्थ), निरुक्त आदि के अच्छे ज्ञाता थे। याप्परुंगल कारिक ( तमिल छंदग्रन्थ) की प्रशंसा में व्याख्याकार गुण. सागर ने लिखा है, 'आर्यम् (संस्कृत) रूपी महासागर को (संस्कृत छंदशास्त्र से तात्पर्य है) तमिल में लाने की महानतम साधना करनेवाले उत्तम तपस्वी उदारचेता अमितसागर ने 'याप्परगल कारिक' की रचना की है।' यद्यपि भाचार्यों की बहुभाषाभिज्ञता की चर्चा हुई है, तथापि इसका यह अर्थ नहीं कि अमितसागर ने संस्कृत की बातों को तमिल में हठात् घुसेड़ने की चेष्टा की। भले ही, अपनी रचनाओं में संस्कृत ग्रन्थों की रचना शैली का अनुकरण किया हो, किन्तु 'याप्परुंगल कारिकै' के ध्यानपूर्वक अध्ययन से यह स्पष्ट मालूम होता है कि उसमें तमिल के विशिष्ट छंदभेदों का ही विवेचन हुआ है।
इळम्पूरणर अमितसागर और गुणसागर के पश्चात्वर्ती लक्षण ग्रन्थकारों से इळम्पूर रणर् का नाम उल्लेखनीय है। तोलकाप्पियम्' के 'शेय्युळ, इयल' (पछ विचार-भाग) का विकास आचार्य अमितसागर के द्वारा हुआ। फिर भी
१३
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org