Book Title: Jain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 7
Author(s): Ambalal P Shah
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 237
________________ २२४ मराठी जैन साहित्य का इतिहास निर्दोषसप्तमी और सुगन्धदशमी की कथाएं पहले भी कुछ कवियों ने मराठी में लिखी थीं, यह ऊपर लिख चुके हैं। ये पूर्ववर्ती रचनाएँ ओवी छन्द में तथा सरल भाषा में हैं। जिनसागर की कथाएँ विविध वृत्तों में और प्रौढ़ अलंकारयुक्त भाषा में हैं अतः इनका अधिक प्रसार हुआ है। शक १६४६ में रचित आदित्यव्रतकथा में ४६ पद्य हैं । शिरड ग्राम (जि. परभणी) में शक १६५३ में रचित अनन्तव्रतकथा में ७३ पद्य हैं । निर्दोषसप्तमीकथा में ११३ और सुगन्धदशमीकथा में १३६ पद्य हैं। पुष्पांजलिव्रतकथा में १०२ पद्य हैं। यह व्रत भाद्रपद शुक्ल पंचमी से नवमी तक होता था तथा इसमें पंचमेरुस्थित जिनबिम्बों की पूजा होती थी। कलशदशमीक्त श्रावण शुक्ल दशमी को होता था, इसकी कथा में ४९ पद्य हैं। जिनसागर की तीन अन्य कथाएँ भी प्राप्त हैं। शक १६४९ में कारंजा में रचित जिनकथा ( इसे जिनागमकथा या जम्बूद्वीपकथा भी कहा गया है ) में २१२ ओवी हैं। इसमें छह काल, चौबीस तीर्थकर और बारह अंग ग्रन्थों का संक्षिप्त विवरण दिया गया है। लहु-अंकुश कथा शिरड ग्राम में शक १६५३ में लिखी गई थी। इसके ७९ पद्यों में सीता का निर्वासन, लव-कुश का जन्म, उनका बचपन, राम से युद्ध और अन्त में तपस्या और निर्वाण का कथाभाग वणित है । शिरड में ही शक १६५२ में रचित पद्मावतीकथा में ६५ पद्य हैं। मथुरा के उग्रवंशीय राजकुमार जिनदत्त द्वारा कर्णाटक के हुमच नगर और वहाँ के पद्मावतीमंदिर की स्थापना की कथा इसमें वर्णित है । जिनसागर की अन्य रचनाओं की पद्यसंख्या इस प्रकार है ( विषय इनके नामों से ही स्पष्ट है )-भक्तामरस्तोत्र ( मानतुंगकृत संस्कृत स्तोत्र का समवृत्त मनुवाद ) ५०, आदिनाथस्तोत्र १०, शान्तिनाथस्तोत्र १०, पार्श्वनाथस्तोत्र १८, वीतरागस्तोत्र २९, पद्मावतीस्तोत्र १४, क्षेत्रपालस्तोत्र ९, शान्तिनाथ आरती ३, महावीर आरती ५, सरस्वती आरती ५, पद्मावती आरती (दो संस्करण ) ४ और ५, दशलक्षणधर्म आरती ( दो संस्करण ) ६ और ७, ज्येष्ठ जिनवरपूजा १६ तथा कयको १४ ( इस गीत में पद्मावतीदेवी पंचमकाल और षष्ठकाल का भविष्य बतलाती हैं ऐसी कल्पना है)। संस्कृत में पंचमेरुपूजा, नंदीश्वरपूजा और नवग्रहपूजा तथा हिन्दी में १. सुगन्धदशमी कथा की ७३ चित्रों से युक्त एक प्रति अन्य चार भाषाओं में रचित इसी कथा के साथ भारतीय ज्ञानपीठ, वाराणसी, द्वारा सन् १९६६ में डा. हीरालाल जैन के संपादन में प्रकाशित हुई है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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