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आहार से सम्बन्धित बयालीस दोषों के कारण एवं परिणाम ...91
एवं स्खलनाएँ उत्पन्न होती हैं, वे उद्गम दोष कहलाते हैं।
पिण्डनिर्युक्ति में उद्गम के तीन समानार्थी शब्दों का उल्लेख है - उद्गम, उद्गोपन और मार्गणा । 2
आचार्य हरिभद्रसूरि ने पंचाशक प्रकरण एवं पंचवस्तुक में उद्गम, प्रसूति और प्रभव इन तीन शब्दों को उद्गम का एकार्थक माना है। ये उद्गम दोष गृहस्थ के द्वारा लगते हैं । 3
पिण्डनिर्युक्ति के अनुसार उद्गम सम्बन्धी सोलह दोषों के नाम एवं स्वरूप निम्न है
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1. आधाकर्म 2. औद्देशिक 4. पूतिकर्म 4 मिश्रजात 5. स्थापना 6. प्राभृतिका 7. प्रादुष्करण 8. क्रीत 9. प्रामित्य 10. परावर्तित 11. अभिहृत 12. उद्भिन्न 13. मालापहृत 14. आच्छेद्य 15. अनिसृष्ट और 16. अध्यवपूरक । 4
विशोधिकोटि - अविशोधिकोटि
उद्गम के सोलह दोषों को दो कोटियों में विभक्त किया जा सकता हैअविशोधिकोटि और विशोधिकोटि । जिसके द्वारा गच्छ में अनेक दोष उत्पन्न होते हों, वह कोटि है। कोटि नौ प्रकार की होती है - स्वयं हिंसा करना, दूसरे से हिंसा करवाना और हिंसा का अनुमोदन करना, भोजन पकाना, दूसरों से पकवाना और पकाने वाले का अनुमोदन करना- ये छह कोटियाँ अविशोधिकोटि रूप कहलाती हैं और स्वयं खरीदना, दूसरों से खरीदवाना और खरीदने वालों का अनुमोदन करना - ये तीन विशोधिकोटि के अन्तर्गत हैं। अविशोधिकोटि को उद्गम कोटि भी कहा जा सकता है।" जो आहार दोष से युक्त हो किन्तु उसमें से दोष युक्त आहार की मात्रा अलग की जा सके अथवा निकाल दी जाए तो अवशिष्ट शुद्ध आहार विशोधिकोटि का कहलाता है और वह मुनि के लिए ग्राह्य होता है तथा जिस आहार में से दोष युक्त आहार को पृथक करना संभव नहीं हो वह अविशोधिकोटि का कहलाता है। 7
उद्गम के सोलह दोषों में आधाकर्म, औद्देशिक, पूतिकर्म, मिश्रजात, बादर प्राभृतिका और अध्यवतर के अंतिम दो भेद अविशोधिकोटि के अन्तर्गत आते हैं। इसमें भी औद्देशिक, मिश्रजात और अध्यवतर के कुछ भेद अविशोधिकोटि में तथा कुछ भेद विशोधिकोटि के अन्तर्गत समाविष्ट होते हैं ।