Book Title: Jain Muni Ki Aahar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith

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Page 271
________________ भिक्षाचर्या का ऐतिहासिक एवं तुलनात्मक अनुसंधान ... 207 अनगार धर्मामृत में सोलहवाँ दोष 'वश' नाम का बतलाया है। उसका अर्थ है - जिन्हें वश में करना चाहें उन्हें आकर्षित करके आहार लेना अथवा स्त्री-पुरुषों में परस्पर मेल-मिलाप करवाकर भोजन प्राप्त करना वश दोष कहलाता है। प्रकार वैभिन्य- यदि उत्पादना दोष सम्बन्धी भेद-प्रभेदों के सन्दर्भ में विचार किया जाए तो निम्न तथ्य प्रकट होते हैं - श्वेताम्बर ग्रन्थों में चिकित्सा नामक छठवें दोष के भेद-प्रभेदों का उल्लेख नहीं है, जबकि मूलाचार में चिकित्सा दोष निम्न आठ प्रकार का बतलाया गया है 1. कौमार चिकित्सा - बालकों की चिकित्सा करना । 2. तनु चिकित्सा - शरीर के ज्वर आदि दूर करना । 3. रसायन चिकित्सा - शरीर की झुर्रियाँ आदि दूर करना । 4. विष चिकित्सा - विष उतारना । 5. भूत चिकित्सा - भूत-प्रेत दूर करने का उपाय करना । 6. क्षारतन्त्र चिकित्सा - दुःसाध्य - घाव वगैरह दूर करना । 7. शालायकिक चिकित्सा - सलाई द्वारा आँख आदि खोलना । 8. शल्य चिकित्सा - फोड़ा चीरना। उक्त आठ प्रकारों में से किसी भी प्रकार का उपचार करके आहारादि ग्रहण करना चिकित्सा दोष है 1 42 इस तरह उत्पादना सम्बन्धी दोषों को लेकर दोनों परम्पराओं में कुछ समानताएँ और कुछ असमानताएँ है। दस एषणा दोषों की अपेक्षा- दिगम्बर परम्परा के अनगार धर्मामृत के अनुसार एषणा सम्बन्धी दस दोषों के नाम निम्नोक्त हैं 1. शंकित 2. पिहित 3. प्रक्षित 4. निक्षिप्त 5. छोटित 6. अपरिणत 7. साधारण 8. दायक 9. लिप्त और 10. निमित्त | 43 मूलाचार में प्रतिपादित एषणा सम्बन्धी दस दोषों के नाम इस प्रकार हैं1. शंकित 2. प्रक्षित 3. निक्षिप्त 4. पिहित 5. संव्यवहरण 6. दायक 7. उन्मिश्र 8. अपरिणत 9. लिप्त और 10. छोटित | 44 एषणा दोष सम्बन्धी संख्या को लेकर दोनों परम्पराओं में मतैक्य है। दोनों परम्पराएँ एषणा से सम्बन्धित दस दोषों को स्वीकार करती हैं।

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