Book Title: Jain Muni Ki Aahar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith

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Page 309
________________ आहार सम्बन्धी 47 दोषों की कथाएँ ...245 थे, जब वे वह नहीं लौटा तो मैं भी नहीं लौटूंगा।' सपरिवार आषाढ़भूति गुरु के समीप गये। वस्त्र-आभरण आदि सब अपनी दोनों पत्नियों को दे दिए और पुन: दीक्षा ग्रहण कर ली। वही नाटक विश्वकर्मा ने कसमपुर नगर में भी प्रस्तुत किया। वहाँ भी 500 क्षत्रिय प्रव्रजित हो गए। लोगों ने सोचा-इस प्रकार क्षत्रियों द्वारा प्रव्रज्या लेने पर यह पृथ्वी क्षत्रिय रहित हो जाएगी अत: उन्होंने नाटक की पुस्तक को अग्नि में जला दिया।20 18. लोभपिण्ड : सिंहकेशरक मोदक दृष्टांत चम्पा नगरी में सुव्रत नामक साधु प्रवास कर रहा था। एक बार वहाँ मोदकोत्सव का आयोजन हुआ। उस दिन सुव्रत मुनि ने सोचा कि मुझे आज किसी भी प्रकार सिंहकेशरक मोदक प्राप्त करने हैं। लोगों के प्रतिषेध करने पर भी वह दो प्रहर तक घूमता रहा। मोदक की प्राप्ति न होने पर उसका चित्त विक्षिप्त हो गया। अब वह हर घर के द्वार पर प्रवेश करके 'धर्मलाभ' के स्थान पर 'सिंहकेशरक मोदक' कहने लगा। पूरे दिन और रात्रि के दो प्रहर बीतने पर भी मोदक के लिए घूमता रहा। अर्ध रात्रि में उसने एक श्रावक के घर प्रवेश किया। 'धर्मलाभ' के स्थान पर उसने सिंहकेशरक शब्द का उच्चारण किया। वह श्रावक बहु गीतार्थ और दक्ष था। उसने सोचा-निश्चय ही इस मुनि को सिंहकेशरक मोदक की तीव्र इच्छा है, इसलिए इसका चित्त विक्षिप्त हो गया है। मुनि की चैतसिक स्थिरता हेतु श्रावक बर्तन भरकर सिंहकेशरक मोदक लेकर आया और निवेदन किया-'मुने! इन मोदकों को आप ग्रहण करो।' मुनिसुव्रत ने उनको ग्रहण कर लिया। मोदक ग्रहण करते ही उसका चित्त स्वस्थ हो गया। श्रावक ने पूछा-'आज मैंने पूर्वार्द्ध का प्रत्याख्यान किया था, वह पूर्ण हुआ या नहीं?' मुनिसुव्रत ने काल ज्ञान हेतु उपयोग लगाया। मुनि ने आकाश-मण्डल को तारागण से परिमण्डित देखा। उसको चैतसिक भ्रम का ज्ञान हो गया। मुनि ने पश्चात्ताप करना प्रारंभ कर दिया-'हा! मूढ़तावश मैंने गलत आचरण कर लिया। लोभ से अभिभूत मेरा जीवन व्यर्थ है।' श्रावक को संबोधित करते हुए मुनि ने कहा- 'तुमने पूर्वार्द्ध प्रत्याख्यान की बात कहकर मुझे संसार में डूबने से बचा लिया। तुम्हारी प्रेरणा मेरे लिए संबोध देने वाली रही।' आत्मा की निंदा करते हुए उसने विधि पूर्वक मोदकों का परिष्ठापन किया तथा ध्यानाग्नि के द्वारा क्षण मात्र में घाति कर्मों का नाश कर दिया। आत्मचिंतन से मुनि को कैवल्य की प्राप्ति हो गई।21

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