Book Title: Jain Muni Ki Aahar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith

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Page 264
________________ 200... जैन मुनि की आहार संहिता का समीक्षात्मक अध्ययन से पूर्व स्वाध्याय अनिवार्य क्यों? आदि का सारगर्भित प्रतिपादन किया है। यदि दिगम्बर साहित्य का समाकलन किया जाये तो मूलाचार एवं अनगार धर्मामृत में यह वर्णन स्पष्ट रूप से उपलब्ध होता है। ऐतिहासिक दृष्टि से यह भी गवेषणीय है कि भगवान महावीर के युग से आज तक भिक्षाचर्या सम्बन्धी नियमों में कब, कौनसे परिवर्तन हुए तथा कितने नये नियम बने? यह स्वतंत्र रूप से शोध का विषय है। यद्यपि पिण्डनियुक्ति आदि ग्रन्थों के अध्ययन से इतना नि:सन्देह कहा जा सकता है कि द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के अनुसार मुनि की आचार संहिताओं में परिवर्तन आया है जैसे कि वस्त्र धोने से पूर्व साधु के लिए सात दिन की विश्रामणा विधि का उल्लेख है उसकी आज न तो कल्पना की जा सकती है और न ही वैसी परिस्थतियाँ हैं। मुनि दिन में कितनी बार भिक्षार्थ जाए इस नियम के सम्बन्ध में उत्तराध्ययनसूत्र तक की परम्परा कहती है कि मुनि दिन के तीसरे प्रहर में भिक्षार्थ जाए क्योंकि उसके लिए दिन में एक समय ही आहार करने का विधान है। दशवैकालिकसूत्र इस बारे में ‘एगभत्तं च भोयणं' का उल्लेख करता है। सामान्यतया जैन साधु गृहस्थ के घर भोजन नहीं कर सकता, लेकिन दशवैकालिकसूत्र में आपवादिक रूप से इस तथ्य की ओर भी संकेत किया है कि भिक्षा ग्रहण करते समय यदि साधु की इच्छा हो जाए तो वह ऊपर से ढके हए, चारों ओर से संवृत्त तथा प्रासक स्थान में बैठकर आहार कर सकता है। आचार्य शय्यंभवसूरि को ऐसा नियम क्यों बनाना पड़ा, यह विमर्शनीय है।21 व्याख्या साहित्य के अनुसार मुनि को अकेले नहीं, दो मुनियों के साथ भिक्षार्थ जाना चाहिए क्योंकि अकेले में स्त्री, पशु, प्रत्यनीक आदि उपसर्गों की संभावना बनती है लेकिन वर्तमान में साध्वियाँ दो तथा साधु प्राय: एकाकी भिक्षार्थ जाते हैं। इस तरह कई बिन्दु विचारणीय हैं। उक्त वर्णन से फलित होता है कि जैनाचार्यों ने भिक्षा विधि के सम्बन्ध में सम्यक निरूपण किया है। आगम साहित्य में इस विषयक नियमों एवं मर्यादाओं का वर्णन है, आगमिक व्याख्याओं एवं परवर्ती ग्रन्थों में तद्विषयक विधिविधान भी प्राप्त होते हैं। आचार्य हरिभद्रसूरि ने तो इस विधि के सम्बन्ध में नवीन मन्तव्य प्रस्तुत कर उसकी सार्वकालिक उपादेयता सिद्ध की है। वर्तमान में आचार्य हरिभद्रसूरि द्वारा उपदिष्ट लगभग सभी विधियाँ प्रचलित हैं।

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