Book Title: Jain Hiteshi 1921 Ank 03
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

View full book text
Previous | Next

Page 7
________________ तीर्थोके झगड़ोंका रहस्य । गये और अपनासा मुँह लिये यात्रा करके तुरंगमाणाम् ७शतानि गजानाम् ,विंशतिनीचे उतर गये।" सहस्त्राणि श्रावककुलानाम्, ३२ उपवासैः यह कथा यद्यपि श्वेताम्बरियों की उदा- स्तम्भतीर्थे प्राप्तः। राज्ञः शरीरं खिन्नम् । रता और गिरिनारपर श्वेताम्बराधिकार गुरुभिराम्बिका प्रत्यक्षीकृत्य अपापसिद्ध करनेके मुख्य अभिप्रायसे लिखी मठात् प्रतिमैका श्रानीता । नृपाभिगई है, तो भी इसमें बहुत कुछ ऐतिहा. ग्रहो मुत्कलोजातः । मासमेकं दिगम्बरैः सिक सत्य जान पड़ता है; और इससे सह वादः, पश्चादम्बिकया 'उर्जित सैलयह बात अनायास ही सिद्ध हो जाती है सिहरे' ति गाथया विवादो भग्नः, तीर्थ. . कि उस समय दिगम्बर और श्वेताम्बर लात्वा दिगम्बरश्वताम्बरजिनार्चानांनग्नादोनों एक ही मन्दिर में उपासना करते थे वस्थाश्चलिकाकरणेत विभेदः कृतः । इति और इन्द्रमालाकी बोली दोनोंके एकत्र यात्रोपदेशः।" इसका अभिप्राय यह समूहमें बोली जाती थी। इसके सिवा है कि सुराष्ट्र देशके गोमण्डल नामक यह भी मालूम होता है कि उस समय गाँवके निवासी धाराक नामके संघपति गिरनारकी मूलनायक नेमिनाथकी प्रति- थे। उनके पुत्र, ७०० योद्धा,' १३०० मा आभूषणोंसे सुसजित और कटिसूत्र गाड़ियाँ और १३ करोड़ अशर्फियाँ थीं। तथा अंचलिकासे भी लांछित नहीं थी। वे शत्रुजयकी यात्रा करके जब गिरनार इसी तरह उदाहरण के तौर पर जो फलोधी तीर्थकी यात्राको गये जो कि ५० वर्षसे तीर्थको प्रतिमाओं के विषयमें कहा है कि दिगम्बरोंके अधिकारमें था, तब वहाँ उन्हें वहाँका प्रतिमाधिष्ठित देव भूषणापहारक स्वजार नामक किलेदारसे लड़ना पड़ा और है, सो जान पड़ता है कि वहाँ भी उस उसमें उनके सातों पुत्र और सारे योद्धा । समय प्रतिमाओंको आभूषणादि नहीं मारे गये। उसी समय जब उन्होंने पहनाये जाते थे। वीतराग प्रतिमाओंकी सुना कि गोपगिरि अर्थात् ग्वालियरके ये सब विडम्बनाएँ बहुत पीछे की गई हैं। राजा आम हैं और उन्हें वप्पभट्टि नामक -श्रीरत्नमन्दिरगणिकृत उपदेश-तरं- श्वेताम्बराचार्यने प्रतिबोधित कर रक्खा. गिणी (पृ० २४८) में लिखा है कि-"सुरा- है, तब वे ग्वालियर आये। उस समय मायाँ गोमण्डलग्रामवास्तव्यः सप्तपुत्रः वप्पभट्टिका व्याख्यान हो रहा था ।राजा सप्तशतसुभटः १३ शतशकट संघः १३ कोटि- बैठे थे और = श्रावक थे। धाराकने दिगस्वर्णपतिः सं धाराकः श्रीशत्रुजय यात्रां म्बरगृहीत गिरनारतीर्थकी हालत सुनाई। कृत्वा ५० वर्षावधि दिगम्बराधिष्ठित रैवत- गुरुने तीर्थकी महिमाका वर्णन किया। यात्रावसरे खङ्गारदुर्गपसैन्यैः सह युद्ध इस पर श्राम राजा प्रतिज्ञा कर बैठे कि ७ पुत्र ७ सुभटक्षये श्रीवप्पभट्टिप्रतिबोधितं गिरनारके नेमिनाथकी बन्दना किये बिना गोपगिरौ श्रीश्रामभूपति ज्ञात्वा तस्याऽs मैं भोजन ग्रहण नहीं करूँगा। १००० मनृपस्य सूरिपार्षे व्याख्यानोपविष्टाष्ट- श्रावकोंने भी यही प्रतिज्ञा की। तब राजा श्राद्धः समं सं० धाराकः समागतः। तेन एक बड़े भारी संघके साथ चल पड़े। दिगम्बरगृहीत तीर्थस्वरूपं कथितम् । गुरु- ३२ उपवास करके स्तंभतीर्थ अर्थात् भिस्तन्महिमोक्तौ श्रामनृपेण गिरिनारने- खंभातमें पहुँचे। राजाका शरीर बहुत मिवन्दनं विना भोजनाभिग्रहो गृहीतस्ततः खिन्न देखकर गुरुने अम्बिकाको बुलाया संघश्वचाल । १ लक्षं पौष्टिकानाम् एकलक्षं और उसके द्वारा अपापमठ (१) से एक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36