________________
अङ्क ५]
सनातनी हिन्दू । आदि के सूक्ष्म प्रतिबन्ध रख दिये गये हैं। आश्रम (साबरमतीका सत्याग्रहाश्रम) उन्हें मैं बुरा नहीं समझता । परन्तु साथ संन्यासियों जैसा धर्म पालता है। उसमें ही जो उनका पालन नहीं करता उसे मैं हिन्दूधर्मके अनुसार, इस युगके योग्य, धर्मभ्रष्ट भी नहीं समझता । भोजन-पान एक नई जातिका नया व्यवहार चल रहा और विवाह-व्यवहार चाहे जहाँ म करना, है। इस कार्यको मैं एक प्रयोग या परीक्षाइसे मैं शिष्टाचार समझता हूँ। इसमें के रूपमें कर रहा हूँ। यदि वह फलीभूत प्रारोग्य और पवित्राकी रक्षा समाई हुई हुआ तो अनुकरणीय गिना जायगा और है। परन्तु तिरस्कारके रूपमें किसीके यदि निष्फल होगा तो उससे किसीकी भोजन-पानका त्याग करना हिन्दुधर्मके कोई हानि न होगी। प्रयोग करनेवालेको विरुद्ध है, ऐसा मैं मानता हूँ। मैंने अपने भी कोई हानि नहीं होगी। क्योंकि इस अनुभवसे निश्चय किया है कि परवर्णीयों परीक्षाका मूल संयम है । इसमें मेरा हेतु और परधर्मियोंके साथ बेटी-व्यवहार यह है कि सेवाधर्मका बिना कठिनाईके और रोटी-व्यवहारका प्रतिबन्ध हिन्दूधर्म- पालन हो और जहाँ पर धर्मका समावेश की संस्कृतिकी एक श्रावश्यक बाड़ केवल खाने पीने में कर लिया गया है वहाँ (परिधि) है।
इस रिवाजको उसके योग्य और गौण यदि ऐसा है तो फिर मैं मुसलमानों- स्थान दिया जाय।
. के यहाँ भोजन क्यों करता हूँ ? इसलिए कि अब रही अस्पृश्यता या छूआछूत। उनके यहाँ भोजन करते हुए भी मैं संयम अस्पृश्यताको उत्पत्ति कैसे हुई, इसको धर्मका पूरा पूरा सेवन कर सकता हूँ। कोई नहीं समझ सकता । मैंने इसके पकाई हुई चीजों में डबल रोटी तक खाता सम्बन्धमें अनुमान ही किये हैं। वे सत्य है। क्योंकि डबलरोटीके पकानेकी क्रिया हो या असत्य, परन्तु यह तो अन्धा भी बिलकुल शुद्ध है और जिस तरह पोहे देख सकता है कि अस्पृश्यता है। बहुत तथा फुटाने चाहे जहाँ भुने हुए खाये समयका अभ्यास जिस तरह हमें अपने जाते हैं, उसी तरह डबल रोटी (रोटी या प्रात्माको नहीं पहचानने देता, उसी चपाती नहीं) भी चाहे जहाँकी पकी हुई . तरह हमारा बहुत पुराना अभ्यास अस्पृ. खाई जा सकती है।* फिर भी मेरे साथी श्यताके अधर्मको भी नहीं देखने देता। इतना प्रतिबन्ध नहीं पालते और मुसल- किसीको भी पेटके बल चलाना, जुदा मान तथा अपनेसे इतर वर्णवालोंके रखना, गाँवसे बाहर निकाल देना, वह यहाँ शुद्ध रीतिसे पकाये हुए अन्य खाद्य मरता है या जीता, इसकी परवाह न भी खा लेते हैं। ऐसा करके वे अपने करना, उसे जूठा भोजन खिलाना ये सिरपर जाति-बहिष्कारकी जोखिम उठाते सब बातें कभी धर्म नहीं हो सकतीं। है; परन्तु उनका हिन्दूपना नहीं मिटता। पंजाबक जिस प्रोडायर-डायरशाही अत्या
चारोंके विरुद्ध हम पुकार मचा रहे हैं, * समझमें नहीं पाया कि महात्माजीका यह विचार उनसे भी अधिक अन्याय और अत्याचार किस दृष्टिको लिये हुए है, कैसे उन्होंने साधारण रोटीकी भषेक्षा डबल रोटीके पकानेकी क्रियाको बिलकुल शुद्ध माना
हम अन्त्यजों (भंगी, चमार आदि जातियों) है और क्योंकर डबल रोटीकी, चाहे जहाँकी पकी हुई होने
पर कर रहे हैं। अन्त्यज पड़ोसमें नहीं पर भी ग्राम प्रतिपादन किया है-दोनों में तात्विक दृष्टिसे रह सकता, अन्त्यजको अपनी मालिकी क्या विशेषता है।
जमीन नहीं मिल सकती, अन्त्यजको हमें
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org