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'अङ्क ५ ]
विद्याविरोधं नोधनिधिसाधुनिरस्तवादः श्रीमानुमाप्रभुरनन्तर पूज्यपादः । शं वो ददातु सदयः शुभदानदक्षो विद्यादिनन्दिगुरुरात्मविदां मुमुक्षुः ॥ समन्तभद्रैरपि पूज्यपादै कलंकमुक्तैर कलंकदेवैः ।
सेठ चिरंजीलालजीका दान ।
यदुक्तम प्राकृतमर्थसारं
तत्प्राकृतं च श्रुदसागरेण || प्रत्येक अध्यायके अन्त में जो सन्धि दी है वह इस प्रकारकी है :
“इत्युभयभाषाकविचक्रवर्ति-व्याक रणकमलमार्तंड-तार्किक बुधशिरोमणि पर मागमप्रवीण- सूरि श्रीदेवेन्द्र कीर्तिप्रशिष्य मुमुक्षुश्रीविद्यानन्दिप्रिय शिष्य श्रीमूल संघपरमात्मविदुष-सूरि श्रीश्रुतसागर विरचिते, औदार्यचिन्तामणि नाम्नि (स्वोपज्ञवृत्तिनि) प्राकृत व्याकरणे'
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सुनिश्चित समय विक्रमकी १६वीं शताब्दी है । उनका यह व्याकरण यशस्तिलककी टीकासे पहले बन चुका था । हमारी रायमें यह ग्रन्थ १६ वीं शताब्दी के मध्य भागका बना हुआ है । यह ग्रन्थ बङ्गाल - की एशियाटिक सोसायटीकी लाइब्रेरीमें मौजूद है। दूसरे किसी प्रसिद्ध भण्डार की सूची में इस ग्रन्थका नाम अभीतक हमारे देखनेमें नहीं श्राया । इस ग्रन्थका भी उद्धार होनेकी बड़ी ज़रूरत है। यह भी माणिकचन्द्र-ग्रन्थमाला में प्रकाशित होना चाहिए जिसमें प्राकृत भाषा के शिक्षण में अच्छी सहायता मिल सके। इसकी जो प्रति उक्त लाइब्रेरीमें मौजूद है उसके छठे अध्यायका अन्तिम भाग कुछ खण्डित है । इस लिए और जहाँ कहीं के भण्डार में यह ग्रन्थ मौजूद हो. वहाँके भाइयोंको उसकी सूचना देनी चाहिए ।*
इस परिचयसे स्पष्ट है कि इस
ग्रन्थके कर्त्ता वे ही श्रुतसागर हैं जो पट् सेठ चिरंजीलालजीका दान ।
प्राभृत, तत्त्वार्थसूत्र और यशस्तिलक चम्पू नामक ग्रन्थोंकी टीकाओंके कर्त्ता हैं; क्योंकि इन टीका ग्रन्थोंमें इनके कर्त्ता श्रुतसागरका भी ऐसा ही परिचय पाया जाता है। बल्कि यशस्तिलककी टीकामें 'प्राकृत व्याकरणाद्यनेक शास्त्ररचनाचंचुना' इस विशेषणके द्वारा यह साफ़ तौर से उल्लेख भी किया गया है कि आपने प्राकृत व्याकरण श्रादि अनेक शास्त्रोंकी रचना की है। श्रुतसागर मल्लिभूषण के गुरुभाई और मल्लिभूषण के प्रशिष्य ब्रह्मनेमिदत्तके समकालीन विद्वान् थे । ब्रह्मनेमिदत्त ने श्रीपालचरित्र नामका एक ग्रन्थ वि० सं० १५८५ में बनाकर समाप्त किया है; और इस ग्रन्थके एक उल्लेख से ऐसा मालूम होता है कि श्रुतसागर उस समय मौजूद थे । इसलिए श्रुतसागरका
पं० उदयलालजीके विवाह के समय वर्धानिवासी सेठ चिरंजीलालजी बड़जात्याने १०० ) का दान इस उद्देश्यसे दिया था कि उन रुपयोंके द्वारा स्त्रीसमाजमें विदेशी वस्तु- बहिष्कार और असहकारका प्रचार किया जाय । खण्डेलवाल हितेच्छुके सम्पादक महाशयने इस विषय पर ७ पेजका एक 'गूढ़ गवेषणात्मक' लेख लिखनेका कष्ट उठाया है
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औदार्य चिन्तामणि सम्बन्धी इस नोटके लिखने में हमें श्रीयुत एस० पी० वी० रङ्गनाथ स्वामी आर्यवर गुरु, विजगापट्टम के एक अँगरेजी लेखपर से बहुत कुछ सहायता मिली है, जिसके लिए हम उनके बहुत आभारी हैं। इस व्याकरणके प्रथम तीन अध्यायोंका सूत्रपाठ भी हमें छपा हुआ मिला है। परन्तु उसे कहाँ और किसने छपाया है, यह मालूम नहीं हुआ । सम्भव है कि उक्त रङ्गनाथस्वामीका हो वह पाया हुआ हो । सम्पादक ।
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