Book Title: Jain Hiteshi 1921 Ank 03
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 31
________________ अङ्क ५] सेठ चिरंजीलालजीका दान। १५७ यह है कि विधवाएँ अपने संरक्षकोंके में कह देना चाहिए कि मैं विधवा-विवाहसाथ असकार करें, उनकी श्राज्ञासे न के साथ सहानुभूति रखता हूँ और उसका रहे,श्रादि । पण्डितजीके उपजाऊ मस्तक. प्रचार चाहता हूँ। उन्हें इस वाग्वितण्डाकी इस नई ईजादकी जितनी प्रशंसा की में पड़ना ही न चाहिए कि वह रुपया जाय, थोड़ी है । सुसंस्कृत मस्तकोंको अमुक कार्य के लिए दिया गया है और ही ऐसी बातें सूझ सकती हैं, मेरे जैसे अमुकके लिए नहीं। यदि उनकी इस अपण्डितोकी पहुँच इतनी दूर तक कहाँ वाचनिक सहानुभूतिको भी खण्डेलवाल हो सकती है ! पंचायत अपराध समझती है तो समझे; ____सेठ चिरंजीलालजीने जब एक पर उन्हें अपने हृदयको सबके सामने विधवा-विवाहके अवसर पर उक्त दान खोलकर रख देना चाहिए। यदि खण्डेलकिया है, तब यह स्पष्ट है कि वे विधवा- वाल जातिमें कुछ सोचने समझनेकी विवाहसे सहानुभूति रखते हैं; और यह शक्ति बाकी होगी और उसे जातिके सहानुभूति ही उन्हें दण्डित करनेके लिए वास्तविक कल्याणकी इच्छा होगी तो काफ़ी है । दान चाहे असहकारके प्रचार. वह केवल विचारोंके कारण जाति-च्युत के लिए किया गया हो और चाहे विधवा- करनेकी मूर्खता न करेगी । और यदि वह विवाहके पोषणके लिए, दोनों ही ऐसा करे, मनुष्यकी जन्मसिद्ध विचारहालतोंमें वे विधवा-विवाहके पोषक स्वाधीनता पर भी हमला करने में प्रागा- . सिद्ध होते हैं। फिर समझमें नहीं आता पीछा न करे, तो हमारी समझमें मनुष्यताकि मेरे लिखनेसे सेठ चिरंजीलालजी का अपमान करनेवाली ऐसी जातिको ही पंचायती आपत्तिसे कैसे बच जाते। दूरसे नमस्कार कर लेना अच्छा है। और जब मैं झूठ लिखकर भी उन्हें थोड़ी देरके लिए मान लीजिये कि विधवा-विवाहके अनुयायी बननेसे न सेठजीने उक्त दान विधवा-विवाहके बचा सका, तो मैंने वह झूठ लिखा ही प्रचारके लिए ही दिया था। परन्तु जब क्यों ? इसके सिवा यह भी समझना वे स्वयं उससे इन्कार करते हैं और कठिन है कि सम्पादक महाशय इस इन्कार करके एक तरहसे अपनी जातिके विषयको लेकर इतना अकाण्ड-ताण्डव अधीन रहना स्वीकर करते हैं, तब क्या क्यों कर रहे हैं। विधवाविवाहके समयके खण्डेलवाल पंचायत इतनेसे सन्तुष्ट नहीं दानमात्रसे भी तो वर्धाकी पंचायती हो सकती ? क्या उसे तभी चैन मिलेगा, उन्हें दण्डित करनेके लिए दबाई जा जब इस व्यर्थके वितण्डासे तङ्ग आकर सकती है; और इसीके लिए उनका यह एक उत्साही और कार्यतत्पर पुरुष खुले सब उद्योग मालूम होता है। उन्हें यह भी तौर पर उसकी मर्यादाके बन्धनको तोड़सोचना चाहिए कि जब मैं स्वयं अपने । महापर आनेवाली आपत्तियोंसे सभाके सूत्रधार इसी नीतिसे अपनी हूँ, तब चिरंजीलालजीके लिए क्यों डरने जातिका कल्याण करना चाहते हैं ? देशलगा ? इसके विरुद्ध मेरा तो यही चाहना की नौकरशाहीके समान क्या निग्रह और अधिक स्वाभाविक है कि वे विधवा- दमनको ही वे अपने शासनमें प्रतिष्ठित विवाहके खुल्लमखुल्ला अनुयायी बन जायँ। करनेकी इच्छा करते हैं ? नाथूराम प्रेमी। मेरी समझमें तो अब भी उन्हें स्पष्ट शब्दों अपने कर फेंक देगा?क्या खराडेल Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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