Book Title: Jain Hiteshi 1921 Ank 03
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 32
________________ 'जैनहितैषी। [ भाग १५ । - घटा ! देवेन्द्रकी प्यारी मूर्ति सामने आ . देवन्द्र-वियाग! आकर अदृश्य हुई जाती है ! उसके गुणोंअाज हमें अपने पाठकोपर यह के चिन्तवनसे हृदय विदीर्ण होता है दुःसमाचार प्रकट करते हुए अत्यन्त और छाती भर भर आती है ! ऐसे दुःख होता है कि, जैनसमाजका वह उत्साही, कार्यकुशल, धर्मात्मा और गुणबहुमूल्य रत्न, उसका वह सच्चा सेवक ग्राही नवयुवकका समाजसे एकदम उठ जो रात दिन समाजकी हितकामनासे जाना समाजके लिए निःसन्देह बड़े ही व्यग्र रहता था और उसके विपुल दुर्भाग्यकी बात है ! कुमार साहबका साहित्यका उद्धार तथा प्रचार करनेके यह देहावसान कलकत्तमें सेठ रामजीवन लिए सारे भारतवर्षमें दौडधूप किया फूलचन्दजी जैनके मकान पर हुश्रा है। करता था, जिसने जैनधर्मके अच्छे अच्छे उक्त फर्मके मालिकोंने शीतला रोगसे ग्रन्थोंको अंग्रेजी अनुवाद सहित प्रका- पीड़ित कुमार साहबकी उपचर्या में कोई शित करके उनके द्वारा विदेशोंमें भी बात उठा नहीं रक्खी । कलकत्तेके श्रच्छे जैनधर्मके प्रचारका बीड़ा उठाया था, अच्छे वैद्यों (कविराजों) से इलाज कराया जो आराके प्रेममन्दिरका पुजारी था गया और उसमें बहुत सा धन खर्च और जिसने अपने घरपर उक्त मन्दिरकी किया गया। परन्तु अफसोस ! श्राप स्थापना करके उसके द्वारा हिन्दीमें नई लोगोंकी यह सब सेवा कुछ भी काम न नई अच्छी पुस्तकोंका प्रकाशित करना आई और भावीके आगे सबको हार प्रारम्भ किया था, वह समाजका हितैषी, माननी पड़ी! कुमार साहबकी अवस्था देशका शुभचिन्तक, स्त्रीशिक्षाका अनन्य इस समय ३० वर्ष के लगभग थी। उनके भक्त, पुरातत्व और इतिहासका प्रेमी, इस असामयिक वियोगसे जैनसमाजको सौम्यमूर्ति कुमार देवेन्द्रसाद आज इस जो भारी क्षति पहुँची है वह अवर्णनीय संसारमें नहीं है ! फाल्गुण शुक्ला म्मी- है और उसे समाज सहजमें शीघ्र पूरा को सन्ध्याके समय निर्दय कालने उसे नहीं कर सकेगा। कुमार साहब अपनी अपने गालमें रख लिया; अथवा यो कहिये माताके इकलौते पुत्र थे, आपके पिताका कि प्रायः २१ दिनतक शीतलाके बहाने देहान्त बहुत पहले हो चुका था, आपके गालमें रखकर अन्तको उस दिन उसे कोई सन्तान नहीं है और आपकी नव चबा डाला और निगल लिया !!! हा! विवाहिता स्त्री एक १३-१४ वर्षकी देवेन्द्र कितना विनयी, परोपकारी, सरल निरी अबोध बालिका है, ये सब बातें प्रकृति और गुणी था, इस बातका उस आपके वियोगजन्य दुःखको और भी दुष्टको जरा भी खयाल नहीं आया; और उत्तरोत्तर बढ़ानेवाली हैं ! इस वियोगमें न उनकी उस नवविवाहिता स्त्रीपर ही दुःख और समवेदना प्रकट करनेके उसने तरस खाया जिसके विवाहको सिवाय समझमें नहीं पाता कि हम किस अभी १० महीने भी पूरे नहीं हुए थे और प्रकारसे आपकी वृद्धा माता और असजो बेचारी अच्छी तरहसे चार महीने हाया विधवाको धैर्य बँधावे अथवा भी अपने पत्तिके सङ्ग नहीं रह सकी! दिलासा दें । संसार और कमौकी हाय ! यह कैसी भयङ्कर दुर्घटना है ! गति बड़ी ही विचित्र है: कुछ भी कहते कैसा वज्रपात ! शोककी कैसी काली नहीं बनता : श्रीजैनधर्मके प्रतापसे इन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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