Book Title: Jain Hiteshi 1921 Ank 03
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 27
________________ अङ्क ५] दुष्प्राप्य और अलभ्य जैनग्रन्थ। १५३ . हुई है वे 'देवनन्दी के शिष्य और 'विनय- सभंगाभंगश्लेषप्रधानतया कथा द्वयचन्द्र' के प्रशिष्य थे, ऐसा उक्त मङ्गला- वर्णकस्य तस्य चास्य महाकाव्यस्य टीकाचरणके पद्यों और सन्धियों परसे पाया पि विनयचन्द्रान्तेवासि (?) नेमिचन्द्रेण जाता है। साथ ही यह भी मालूम होता महती वृत्तासीत् । तस्याश्चातीव विस्तृत. है कि 'त्रैलोक्यरीति' भी उनके कोई गुरु त्वात्ततः सारमुद्धृत्य श्रीबदरीनाथेनेव अथवा समकालीन विद्वान् थे । यथाजीयान्मृगेन्द्रो विनयेन्दुनामा सकलसुमनोभूषितेन दाधीच जयपुर ___ संवित्सदाराजित कंठपीठः । संस्कृतपाठशालाध्यापक विद्वद्वर बदरीनाथे नेयं सुधारूपा प्रकाशिता। प्रक्षीववादीभकपोलभित्तिं । ___ऐसी हालतमें नेमिचन्द्रकी उक्त प्रमाक्षरैः स्वैर्नखरैर्विदार्य ।।२।। विस्तृत टीकाके उद्धारकी बड़ी ज़रूरत तस्याथ शिष्योऽजनि देवनन्दी है । वह ज़रूर माणिकचन्द्र ग्रन्थमालामें सद्ब्रह्मचयव्रत दवनन्दा । . प्रकाशित हो जानी चाहिए, जिससे पदाम्बुज द्वन्द्वमनिन्द्यमर्य विद्वान् लोग उसकी विशेषताओंसे लाभ . ___ तस्योत्तमांगेन नमस्करोमि ॥३॥ उठा सके और एक विद्वानकी अच्छी . त्रैलोक्यकीर्तेश्चरणारविन्द कृति सुरक्षित हो जाय । पारे नयार्णोदाध सम्प्रणम्य । दूसरी टीका .. पिपासतां राघवपाण्डवीयां टीकां करिष्ये पदकौमुदीं तां ॥४॥ कवि 'देवर' की बनाई हुई है, जिसे "इति निरवद्यविद्यामण्डनमण्डित- की प्रेरणासे रचा था, जैसा कि उसके उन्होंने 'अरलु' नामके एक प्रधान सेठपण्डितमण्डलीडितस्य षट्तकंचक्रवर्तिनः प्रत्येक सर्गके अन्तमें दिये हुए निम्न श्रीमद्विनयचन्द्रपण्डितस्य गुरोरन्तेवासिनो वाक्यसे प्रकट है:- . देवनन्दिनाम्नः शिष्येण सकलकलोद्भव. __ अकारयदिमां टीकामरलुः श्रेष्ठिपुंगवः । चारुचातुरीचन्द्रिकाचकोरेण नेमिचन्द्रेण अकरोदमृताशिष्ट वचनः कविदेवरः ।। विरचितायां द्विसन्धानकवेर्धनञ्जयस्य इस टीकाका नाम 'राघवपांडवीय राघवपाण्डवीयाभिधानस्य महाकाव्यस्य प्रकाशिका' है और यह भी पाराके जैनपदकौमुदी नामदधानायां टीकायां नाय. सिद्धान्त भवनमें मौजूद है। परन्तु यह काभ्युदयरावणजरासन्धवधवर्णनं नामा- टीका ताड़पत्रोंपर कर्णाटकी अक्षरों में है ष्टादशः सर्गः ॥ और इसकी अवस्था अत्यन्त जीर्णशीर्ण २५ वर्ष हुए, सन १८६५ में, बम्बईके है, ऐसा हमें पं० शान्तिराजजीके पत्रसे निर्णयसागर प्रेसने, अपनी काव्यमालामें मालूम हुआ है। सूची में इसकी पत्रसंख्या 'द्विसंधान' को प्रकाशित किया था। ५२ और श्लोक-संख्या १२०० दी है। कवि उसके साथ पं० बदरीनाथ (अजैन) की देवरने टीकाके शुरूमें अमरकीर्ति, सिंहबनाई हुई जो टीका लगी हुई है, वह इसी नन्दि, धर्मभूषण,श्रीवर्धदेव, भट्टारक मुनि, पदकौमुदी नामकी विस्तृत टीकाका सार इन प्राचार्योका स्मरण तथा स्तवन किया लेकर बनाई गई है, जैसा कि उसकी है; और इसके बाद अरलु सेठका तथा भूमिकाके निम्न वाक्योंसे प्रकट है:- अपना कुछ परिचय दिया है। अरलु सेठ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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