Book Title: Jain Hiteshi 1921 Ank 03
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 26
________________ १५२ जैनहितैषी। [भाग १५ कम कर दिया। संयमकी पालनामें जहाँ दुष्पाप्य और अलभ्य कोई बाधा न आती हो, वहाँ खाने पीने- दुधाप्य आर अलभ्य में वे धर्मभ्रष्ट होना नहीं मानते । एक वर्ण जैन ग्रन्थ । की विविध जातियोंके बीच बेटी-व्यवहार होना भी उनकी समझमें बुरा नहीं है। २३ द्विसन्धान काव्यकी टीकाएँ। निदान उनके विचारोंका सार सोमदेव सत्कविशिरोमणि विद्वद्रत धनञ्जयसरिके शब्दोंमें यही हो सकता है कि का बनाया हुआ 'द्विसन्धान' नामका "जिनके करनेसे व्रत या संयमका घात एक सप्रसिद्ध महाकाव्य ग्रन्थ है। अपने न होता हो और विश्वासमें अन्तर न साहित्य तथा काव्यकी दृष्टिसे यह ग्रन्थ प्राता हो, वे सब लौकिक विधियाँ हमको बड़े ही महत्त्वका और उच्च कोटिका माननीय हैं।" प्राचीन ग्रन्थरत्न है। इसका दूसरा नाम हमारी समझमें गान्धीजीका हिन्दू 'राघवपाण्डवीय' भी है। इसमें रचनाधर्म एक संस्कार किया हुआ हिन्दूधमे कौशलके द्वारा श्रीरामचन्द्र और पाण्डव है। उसे उन्होंने अपनी परम शान्त, दोनोंकी कथाओका सम्मेलन किया गया निष्पक्ष और अहिंसक वृत्तिके अनुकूल है-एक ही शब्द-रचना परसे दोनों संस्कृत कर लिया है और उस संस्कार- कथाओंका अर्थावबोध होता है। एक में उनके जीवन पर जैनधर्मका जो प्रभाव प्रकारसे अर्थ करने पर यह ग्रन्थ 'रामापड़ा है, उसकी छाया स्पष्टतया लक्षित यण' मालूम होता है और दूसरे प्रकारसे होती है। इसी कारण वे जैनधर्मको अर्थ करने पर इसमें 'महाभारत' का हिन्दूधर्मसे जुदा नहीं समझते । उन्होंने आनन्द आने लगता है। यही इस ग्रन्थअहमदाबादमें महावीर जयन्तीके अव में सबसे बड़ी खूबी है और इसीसे सर पर यह कहा भी था कि "जो सञ्चा इसका सार्थक नाम 'द्विसन्धान' रक्खा द्विन्ट है वह जैन है: और जो सञ्चा जैन गया है। ऐसे महत्वके ग्रन्थकी जितनी है वह हिन्दू है।" अच्छी और विस्तृत टीका उपलब्ध हो, ____ कोई माने या न माने और समझे उतना ही अच्छा है। अभीतक इस ग्रन्थ या न समझे, परन्तु महात्मा गान्धीके पर हमें दो संस्कृत टीकाएँ उपलब्ध हुई उपदेशों और प्रभावने अलक्षित रूपसे हैं। एक टीका श्रीनेमिचन्द्रकी बनाई हुई जैनधर्मका असीम उपकार किया है; और है जिसका नाम 'पदकौमुदी' है। यह उन नवयुवकोके विचारोंमें तो आश्चर्य- टीका पाराके जैनसिद्धान्त भवनमें मौजद जनक परिवर्तन कर दिया है जो जैन- है। इसकी पत्रसंख्या २५३ और श्लोकधर्मके अहिंसा-तत्त्वको भारतका गारत संख्या प्रायः नौ हज़ार है । टीकाके करनेवाला बहुत प्रधान कारण समझ मङ्गलाचरणका प्रथम पद्य इस प्रकार है:रहे थे । अहिंसामें भी कोई महती शक्ति श्रीमान् शिवानन्दनयीशवन्धो है और वह ऐसी शक्ति है जिसके आगे एक बड़े भारी साम्राज्यकी शक्ति भी भूयाद्विभूत्यै मुनिसुव्रतो वः । तुच्छ है । यह उन्हींके आन्दोलनने ___ सद्धर्मसंभूति नरेन्द्र पूज्यो | विश्वास कराया है। भिन्नेन्द्रनीलोल्लसदंग कान्तिः ॥१॥ नाथूराम प्रेमी। यह टीका जिन नेमिचन्द्रकी बनाई Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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