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अ५] सनातनी हिन्द।
१५१ यह सच है कि महात्माजीके जीवन इसी बातको पुष्ट करती है। परन्तु इस पर जैनधर्मकी बहुत बड़ी छाप पड़ी है। एक सिद्धान्तको छोड़कर उन्होंने अपने सुप्रसिद्ध जैनतत्वज्ञ स्वर्गीय रायचन्दजी. लेख में जो अन्य बातें प्रकट की हैं, वे को वे बहुत बड़ा आदर्श पुरुष मानते ऐसी नहीं हैं जिनका जैनधर्मके साथ हैं । वे यह भी स्वीकार करते हैं कि मेरे सामंजस्य न हो सके। चरित्र पर उनके जीवनका सबसे अधिक
म. गान्धी जैनी नहीं हैं और वे प्रभाव है। जैनधर्मके परम अहिंसा तत्त्व- अपने श्रापको 'चुस्त सनातनी हिन्द को जितने व्यापक और विशाल रूपमें कहते हैं। परन्तु इस लेखसे उनका सनाउन्होंने व्यवहारयोग्य बनाकर दिखलाया तन हिन्दुधर्म कुछ विलक्षण सा मालूम है, उतना पिछले हजार वर्षोंमें शायद ही होता है। क्योंकि वे वेद, पुराण, स्मृति किसीने दिखलाया हो। उनका चरित्र आदि धर्मग्रन्थोंकी उतनी ही बात माननेएक सवेसे सच्चे जैनीके लिए भी अनु- के लिए तैयार हैं जो बुद्धिग्राह्य हो, करणीय है; और इस दृष्टि से उन्हें 'जैन' अर्थात उनकी सदसद्विवेक बुद्धि जिनके कहना अनुचित नहीं हो सकता। फिर माननेसे इन्कार न करती हो। वे धर्मभी वे अपनेको 'जैन' न कहकर 'सना- ग्रन्थोंके अक्षरों और शब्दोंसे चिमटे तनी हिन्दू' और 'वैष्णव' मानते है और रहनेको-उनके अर्थों पर लड़ मरने कोउनके इस कथनपर अविश्वास करनेका भी ठीक नहीं समझते । स्मृतियोके कोई कारण नहीं देख पडता।
प्रति तो उनके हृदय में बहुत ही कम उनके अनेक व्याख्यानों और लेखोसे
व्याख्याना श्रार लखास आदर-बुद्धि जान पड़ती है। अनेक उपप्रकट होता है कि वे कट्टर ईश्वरवादी
निषदोंको भी वे बुद्धिग्राह्य नहीं मानते। हैं। अर्थात् उनका जैनोंके समान अनेक
इन सब बातोंको दूसरे शब्दों में कहा जाय परमात्माश्री या सिद्धाम नही, किन्तु एक तो यों कहना चाहिए कि वे 'श्रागमपरब्रह्म परमात्मामें विश्वास है। जैन प्रामाण्य को बहुत अधिक महत्त्व नहीं धर्मके साथ उनके विश्वासमें जो बड़ा देते। इससे यह ध्वनित होता है कि वे भारी अन्तर है वह यही जान पड़ता वेदोक्त हिंसाको, बलिदानकी प्रथाको है*। और तात्त्विक दृष्टि से यह अन्तर और मांसभक्षण आदिको सर्वथा अप्र. साधारण नहीं है। उनकी वेद, उपनिषत्, माण मानते होंगे। उन्होंने लिखा भी है पुराण आदि धर्मग्रन्थोकी मान्यता भी कि "जो शास्त्रवचन सत्य, अहिंसा और
* महात्मा गान्धीके ईश्वरविषयक इस विश्वाससम्बन्ध- ब्रह्मचर्यका विरोधी हो वह चाहे जहाँसे में अभी हमें बहुत सन्देह है। सम्भव है कि इस विषयमें मिला हो, मान्य नहीं हो सकता।" उनका विचार उस विचारसे विभिन्न न हो जिसे श्रीमद्राजचन्द नामके तत्त्वज्ञानीने, जिनको महात्माजी अपना उनके सामाजिक विचार भी सनाआदर्शपुरुष मानते और अपने हृदयपर जिनकी छाप तनी हिन्दुओंके लिए विलक्षण मालूम स्वीकार करते हैं, उन्हें उनके प्रश्नोंके उत्तरमें सुझाया हुए बिना न रहेंगे । अस्पृश्यता और था। वे तदनुसार श्रात्माको ही ईश्वर समझते हों। और
छूनाछूतके 'अधर्म' को नष्ट कर देनेके इसलिए उनका ईश्वरविषयक शब्दप्रयोग उसी आत्मदृष्टि अथवा किसी नयविवक्षाको लिये हुए हो। परन्तु इन सब लिए तो उन्होने कमर ही कस रक्खी गातोंका निर्णय और स्पष्टीकरण स्वयं महात्माजीके द्वारा है। रहा वाश्रम, सो उसकी कठोरता ही हो सकता है और होना चाहिए। सम्पादक। और कट्टरताको भी उन्होंने बहुत कुछ
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