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जैनहितेषी।
[भाग १५ देखते ही चिल्लाकर कहना चाहिए कि महात्मा गान्धीके विचार कैसे हैं, यह "दूर रहना, मुझे छूना नहीं," अन्त्यजको लेख प्रकट किया जाता है। अनेक लोगोंगाड़ी में साथ बैठनेकी आज्ञा नहीं । ने उन्हें जैनधर्मानुयायी समझ रक्खा यह हिन्दूधर्म नहीं है-यह तो डायरशाही है। कभी कभी सार्वजनिक सभाओं और है। अस्पृश्यतामें संयम नहीं है। अस्पृ- पत्रों तकमें ऐसी बातें प्रकाशित हो जाती श्यताको पालना चाहिए, इसके लिए हैं। अभी कुछ ही समय पहले पूने के यह उदाहरण दिया जाता है कि माता 'झानप्रकाश' में नागपुरके देशभक्त डा० बच्चेका मैला उठाकर तब तक किसीको मंजेका एक संवाद प्रकाशित हश्रा था। नहीं छूती है जबतक वह स्नान नहीं कर . उसमें डा० मुंजेने स्पष्ट शब्दों में यह लेती। परन्तु इसमें तो माता स्वयं ही नहीं प्रकट किया था कि म. गान्धी इस छूना चाहती। और यदि इस नियमका आन्दोलनके द्वारा जैनधर्मका प्रचार कर हम भंगियोंके सम्बन्धमें पालन करावें रहे हैं और यह बड़े दुःखकी बात है। तो उससे कोई इन्कार नहीं कर सकता। असहकार आन्दोलन दाक्षिणात्योंकी और ( अर्थात् जिस समय भंगी मैला उठाकर शिवाजी आदिकी राजनीतिके बिलकुल पाया हो उसने न स्नान किया हो, उस विरुद्ध है । परन्तु किया क्या जाय, समय वह स्वयं ही हम लोगोंको न छूए । दक्षिणमें कोई बड़ा नेता नहीं रहा । स्नान कर चुकनेपर छूनेकी रोक-टोक इत्यादि । स्वनामधन्य स्वर्गीय लोकमान्य नहीं होनी चाहिए।) भंगी आदि जातियों- तिलकके साथ महात्मा गान्धीका एक को अस्पृश्य गिनकर हम गन्दगीको सहन सिद्धान्तके सम्बन्धमें जो थोड़ा सा करते हैं और रोगोंको उत्पन्न करते हैं। विवाद हुआ था, उससे भी लोगोंने यदि अस्पृश्यको स्पृश्य गिनने लगेंगे तो यही समझा था कि म० गान्धी जैनधर्मअपने उस अङ्गको (भंगी आदि जातियों के अनुयायी हैं । लोकमान्यका कथन था को) साफ रखना सीख जायँगे। कि 'शठं प्रति शाठ्यं कुर्यात्' (जैसेके __ बहुतसे भंगियोके घरोंको मैंने वैष्णव- साथ तैसा होनेकी नीति ठीक है) और के घरोसे भी उजला देखा है। उनमेंसे महात्मा गान्धी कहते थे कि बुरेके साथ कितनोंकी ही सत्यवादिता, सरलता, भी भलाई करनी चाहिए । 'अक्रोधेन दया आदि देखकर तो मैं चकित हो गया जयेत् क्रोधं (क्रोधको क्षमासे जीतना हूँ । मेरा विश्वास है कि हिन्दूधर्ममें चाहिए ।) इस नीतिको गान्धीजी अपने अस्पृश्यता (श्राबूत) रूपी कलिके प्रवेश व्याख्यानों में अक्सर बतलाया करते हैं करनेसे ही हम पतित बन गये हैं और और यह नीति जैनधर्मकी ओर बहत इसीसे गोमाताकी रक्षा करनेके लिए अधिक झुकी हुई मालूम होती है। उनकी वीर्यहीन हो गये हैं। जबतक हम इस जीवनचर्या, उनके व्रत-नियम, उनकी डायरशाहीसे मुक्त नहीं होते, तबतक अपरिग्रहशीलता और उनकी परम अँगरेज़ी डायरशाहीसे मुक्त होनेका हमें अहिंसा-वृत्ति भी लोगों के इस विचारको कोई अधिकार नहीं है ।*
पुष्ट करती है कि वे जैनधर्मानुयायी हैं। नोट । सिर्फ यह बतलानेके लिए कि परन्तु इस लेख में पाठक देखेंगे कि वे
अपनेको चुस्त सनातनी हिन्दु और • फरवरी १६२१ के 'नव जीबन से अनुवादित वैष्णव प्रकट करते हैं।
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