Book Title: Jain Hiteshi 1921 Ank 03
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 21
________________ हुआ है। अङ्क ५ सनातनी हिन्दू। मेरी समझमें हिन्दू-धर्मका अन्तर- मुझे शास्त्रोंको पढ़ने और समझनेकी स्वरूप सत्य और अहिंसा है। मैंने अपनी कुंजी मिल गई है। जो शास्त्रवचन सत्यजान पहचानके लोगोंमें ऐसा एक भी का, अहिंसाका, ब्रह्मचर्यका विरोधी हो, आदमी नहीं देखा जो सत्यका सेवन वह चाहे जहाँसे मिला हो, अप्रमाण है। उतनी सूक्ष्मतासे करता हो जितना मैं शास्त्र बुद्धिसे परे नहीं हैं। जो शास्त्र बचपनसे अबतक कर रहा हूँ। अहिंसा- बुद्धिग्राह्य न हों, उन्हें हम रह कर सकते का जीता जागता लक्षण प्रेम-अवैर है। हैं। उपनिषदोको मैं पढ़ गया हूँ। मैंने मुझे दृढ़ विश्वास है कि मेरे हृदयमें प्रेम ऐसे भी उपनिषत् पढ़े हैं, जो मुझे बुद्धिछलक रहा है-भीतर समाता नहीं है। ग्राह्य नहीं अँचे। इससे मैंने उन्हें आधारमुझे स्वप्नमें भी किसीके प्रति वैरभाव भूत नहीं माना। यह बात अनेक कवियोंउत्पन्न नहीं हुआ। डायरके दुष्कृष्य जान- ने कही है कि जो शास्त्रोंके अक्षरोसे कर भी उसके प्रति मुझे वैर उत्पन्न नहीं चिमटा रहता है-वह 'वेदिया ढोर, होता। जहाँ जहाँ मैंने दुःख देखे हैं, या वेदज्ञ पशु है । शङ्कर आदि प्राचार्योंने अन्याय देखे हैं, वहाँमेरा अात्मा व्याकुल शास्त्रोंका दोहन बहुत थोड़े वाक्यों में कर दिया है। और उन सबका तात्पर्य यह है हिन्दधर्मका तत्त्व मोक्ष है। मैं मोक्ष- कि हमें ईश्वरभक्ति करके ज्ञान और उस के लिए तड़फड़ा रहा हूँ। मेरी सारी ज्ञानके द्वारा मोक्ष प्राप्त करना चाहिए । प्रवृत्तियाँ मोक्षके लिए हैं। मुझे जितना मुजरातके 'अखा भगत ने कहा है:विश्वास अपने शरीरके अस्तित्व और सूतर श्रावे त्यभ तुं रहे, ज्यभ त्यभ उसकी क्षणिकताके विषयमें है, उतना करीने हरिने लहे। ही आत्माके अस्तित्व और उसके अमृ. जो शास्त्र मदिरापान, मांसभक्षण, तत्त्वके विषयमें है। पाखण्ड इत्यादि सिखलाते हैं वे शास्त्र इन सब कारणोंसे जब कोई मुझसे नहीं कहला सकते। 'चुस्त सनातनी हिन्दू' कहता है तब स्मृतियोंके नामसे भी बड़ा अधर्म मुझे प्रसन्नता होती है। फैल रहा है। स्मृति श्रादि ग्रन्थोके- यदि कोई मुझसे पूछे कि तुमने अक्षरोंमें उलझकर हम नरककी योग्यता शास्त्रोका गहरा अभ्यास किया है ? तो प्राप्त कर रहे हैं । स्मृतियोंसे भ्रमित होकर मैं उससे कहूँगा कि नहीं, मैंने नहीं किया। हिन्दू कहलानेवाले लोग व्यभिचार करते और यदि किया भी है तो विद्वान्की हैं और बाल-कन्याओंके ऊपर बलात्कार दृष्टिसे नहीं किया। मेरा संस्कृत-ज्ञान करने-करानेके लिए तैयार रहते हैं। बहुत थोड़ा है। संस्कृतके भाषानुवाद अब यह एक बड़ा भारी प्रश्न उठता भी मैंने थोड़े ही पढ़े हैं। यह दावा भी है कि शास्त्र अनेक हैं। उनमेंसे हम किसे मैं नहीं कर सकता कि मैंने कोई एक क्षेपक समझे, किसे ग्राम गिनें और वेद भी पूरा पूरा पढ़ा है। फिर भी मैंने किसे त्याज्य मानें। यदि आज ब्राह्मण. शास्त्रोको धर्मदृष्टिसे जान लिया है। धर्मका लोप न हुआ होता, तो हम किसी उनका रहस्य मैं समझ गया हूँ और ऐसे ब्राह्मण को खोजकर उससे उक्त मेरी समझमें वेदोंको पढ़े बिना भी प्रश्नका समाधान कर लेते जो. यम-निय मनुन्य मोक्ष प्राप्त कर सकता है। मादिके पालनसे शुद्ध होता और जिसने Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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