Book Title: Jain Gita Author(s): Vidyasagar Acharya Publisher: Ratanchand Bhayji Damoha View full book textPage 9
________________ "समणसुत्तं" है, सारे भारत को मिलेगा पोर प्रागे के लिए जब तक जैन, उनके धर्म वैदिक, बौद्ध इत्यादि जीवित रहेंगे तब तक "जैन-धर्म-मार" पढ़ते रहेंगे। एक बहुत बड़ा कार्य हना है, जो हजार, पन्द्रह सौ माल में हुमा नहीं था। उसका निमित्तमात्र बाबा बना, लेकिन बाबा को पूरा विश्वास है कि यह भगवान महावीर की कृपा है। मैं कबूल करता हूँ कि मुझ पर गीता का गहाग अमर है। जम गीता को छोडकर महावीर मे बढकर किसी का प्रसर मेरे चित्त पर नहीं है। उसका कारण यह है, कि महावीर ने जो प्राज्ञा दी है वह बाबा को पूर्ण मान्य है। प्राशा यह कि सत्याग्रही बनो। प्राज जहाँ जहाँ जो उठा सो सत्याग्रही होता है। बाबा को भी व्यक्तिगत मत्याग्रही के नाते गांधी जी ने पेश किया था, लेकिन बाबा जानता था वह कौन है, वह सत्यागही नही, सत्यग्राही है। हर मानव के पास मत्य का प्रण होता है, इसलिए मानव-जन्म मार्थक होता है। तो सब धमों मे, मब पन्थो में, सब मानवो में मत्य का जो प्रग है, उसको ग्रहण करना चाहिए। हमको मत्याग्रही बनना चाहिए, यह जो शिक्षा है महावीर की, बाबा पर गीता के बाद उमी का प्रमर है। गीता के बाद कहा, लेकिन जब दखता है ता मुझे दानों में फरक ही नहीं दीखता है । वद्य-विद्या मन्दिर पवनार (वर्धा) २५-१२-७४ गम हार गम हार गम हरि हस्ताक्षर श्री विनोबा जीPage Navigation
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