Book Title: Jain Gita
Author(s): Vidyasagar Acharya
Publisher: Ratanchand Bhayji Damoha

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Page 7
________________ ( ५ ) विकल्प की प्रोर आकृष्ट किया, फलस्वरूप श्राभ्यान्तर परणति छूटी प्रोर वहि: पति प्रवाहित हुई । क्षद्मवस्था का मनोबल इतना निर्बल है कि वह अन्तर्मुहूर्त के उपरान्त अपने चंचल स्वभाव का परिचय दिये बिना नहीं रहता। इसी से मन ने प्रस्तुत कृति लिखने का विकल्प किया, यह भी समयोचित ही हुआ । आगम उल्लेख है कि विषय कपाय रूप अशुभ उपयोग से बचने के लिये सहज स्वभाव रूप शुद्धोपयोग की उपलब्धि के लिये तत् माधनभून शुभोपयोग का प्रालंबन लेना मुनियों सतपथ साधकों एवं मतों के लिये भी सामयिक उपादेय है ही । ग्रतः मनोभावना यही है कि प्रध्यात्मरस से परिपूरित इस कृति का मनोयोग से प्रास्वादन कर भव्य पाठक परम वृत्ति का अनुभव करे ! ममता अरुणिमा बढी, उन्नत शिवर पर चढ़ी ! निज दृष्टि निज में गढी, धन्यतम है यह घड़ी । यह सब स्व वयोवृद्ध तपोवृद्ध एवं ज्ञान वृद्धाचार्य गुरु श्री ज्ञानसागर महाराज जी के प्रसाद का परिणाम है कि परोक्ष रूप से उन्ही के प्रभय चिन्ह चिन्हित कर-कमलों में जैन गीता का समर्पण करता हुआ" 1 गुरु चरणारविंदचंचरीक ॐ शुधान्मने नमः ॐ निरंजनाय नमः ॐ श्री जिनाय नमः ॐ निजाय नमः

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