________________
श्री १०५ पलक योग सागर जी एवं श्री १०५ क्षुल्लक समय सागर जी आपके ही मंघ में आत्म साधना में रत हैं तथा माताजी, पिताजी एवं दोनों बहिन श्री १०८ प्राचार्य धर्मसागर जी के संघ में प्रात्म कल्याण कर रहे हैं।
आपकी मातृभाषा कन्नड है फिर भी बहुत ही अल्प समय में (सिर्फ पाँच वर्ष में) अापने संस्कृत, हिन्दी, अंग्रेजी, मराठी एवं प्राकृत भाषा पर अपना पूर्ण अधिकार जमा लिया । आज जनता जब आपके हिन्दी मे प्रवचन मुनती है तो दोनों तले अंगुली दबाकर रह जाती है।
मंस्कृत भाषा पर तो प्रापका विलक्षण प्राधिपत्य है। अच्छे-अच्छे व्याकरणाचार्य भी प्रापके मस्कृत ज्ञान को देखकर चकित हो जाते हैं।
आपने अपने अध्ययनकाल में इन भाषामो का अध्ययन करने में उग्र पुरुषार्थ एर कठिन परिश्रम किया है। प्राप चौबीस घंटे में सिर्फ तीन घंटे इस गीर को विश्राम देते थे और इक्कीम घटे निरन्तर विद्याध्ययन में लगे रहने धे। जिमको देखकर प्राचार्य श्री ज्ञानमागर जी भी प्रापको बार-बार रोकने थे कि इतना परिश्रम करना ठीक नहीं है, परन्तु आप अपनी लगन के पक्के थे जिमका प्रतिफल प्राज प्रापके मामने है कि प्राप दम छोटी मी उम्र में ही विद्या के मागर बन गये है और प्रापने बहुत मे ग्रन्थों की रचना की है व कतिपय ग्रन्थों के अनुवाद भी किये है।
प्रापन मस्कृत भाषा में 'श्रमण शतकम', 'निरन्जन शतकम', "भावना शतक' प्रादि तथा हिन्दी में निजानुभव शतक', 'योग सार', 'मधिनत्र', 'इष्टोपदेश', 'एकीभाव स्तोत्र' प्रादि ग्रन्थो की पद्य में रचना की 7. अनुवाद किया । 'श्रमण मुनम' का हिन्दी अनुवाद प्राचार्य श्री ने जैन गीता के नाम में किया जो कि अापके हाथ में है । यह ग्रन्थ कुडलपुर में मन् १६७६ के चातुर्माम में पूर्ण हुमा एवं सन् १६७७ के चातुर्माम में ममयमार की गाथाम्रो का हिन्दी अनुवाद पूर्ण हुप्रा । इस समय समयसार कलश का हिन्दी अनुवाद ममाप्त होने जा रहा है। दोनों ग्रन्थ प्रापके पान्म-हिन करने में सहायक होने के लिए शीघ्रातिशीघ्र प्रापके पास पाने वाले है ।
इन सभी ग्रन्थो में आपकी प्रान्मानुभूति के साथ वीतरागता में नन्मय चिन्तन शंली की झलक अतिशयता में प्राप्त होगी। प्रत्येक छंद में गतरागता से प्रोत-प्रोन तथा निर्दोष काव्य के भी अपूर्व दर्शन होंगे।