Book Title: Jain Gita
Author(s): Vidyasagar Acharya
Publisher: Ratanchand Bhayji Damoha

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Page 6
________________ पद्यानुवाद के लिए प्रेरणा प्राप्त हुई । एक पत्र था श्रीमान् पं० जमनालाल जी शास्त्री का एवं दूमग था श्री कृष्णगज मेहता जी का। शुभम्य शीघ्र इस मूनि को चरितार्थ करते हुये गुरु स्मृति के साथ प्रन्य का पद्यानुवाद प्रारम्भ किया । तीन चार स्थलो मे गाथागत रहस्य को समझने में पंडित केलागचन्द जी कृत गद्यानुवाद ने दीपक का काम किया है। किन्तु यह अनुमान नहीं था कि अनुवाद (पद्यानुवाद) इतने अल्प काल में सम्पन्न होगा। पद्यानुवाद में केवल माढे मात माम लगे पौर मिदक्षत्र कुण्डनगिरि पर मानन्द सम्पन्न हुअा जो पाठको के सम्मुख जन गीता के रूप में प्रस्तुत है। जन यह प्राज तक कई श्रीमानो, धीमानो एव मनो की दष्टि मे भी जाति गचक ही रहा है जबकि वह उम महज अजर अमर अमूर्त प्रात्मा की प्रोर मुमुक्षुत्रों को प्राकृष्ट करता है । विषय कपायो में ऊपर उठाकर उन्हें परम शानि पथ का प्रदर्शन करना है। जैन गन्द की उत्पत्ति इम प्रकार है । जर्यान स्वकी यानि टन्द्रियाणि पात्मन म जिन जिन एव जैन इनि । जो महापुरप अपनी टन्द्रियों एवं प्रात्मा को पूर्णअपेण जीनता है, उन्ह कुमाग में बचाना है वह जिन है, जिन ही जैन है. जन का गी अर्थात् वाणी और उस गी का भाव या मार के अर्थ में ना प्रत्यय का प्रयोग करने में गीता शब्द की निप्पनि होती है। प्रत यह मुस्पष्ट हमा कि उन जिनेन्द्र भगवान की वाणी के मार का नाम ही जैन गीना मिद है। पौदगलिक परति रूप गन्दी में ही न उलझकर शब्दावबांध में प्रर्थात बोध एव प्रविधि मे उम परम केन्द्र बिन्दु का भी भवगम प्राप्त कर उस तक जाने का माधको वो मनन् प्रयाम करने रहना चाहिये । इमी उद्देश्य को अपनी दृष्टि में रखकर माधना पथारूढ माधको मतो ने पर कल्याण हेतु मिन मिष्ट वचनों में हमे उम महज चेतनाभाव सत्ता उपदेश दिया है और प्राजीवन उस परम सत्ता का मनन मथन कर नवनीत के रूप मे विपुल माहित्य का निर्माण किया है। झर झर करता झरना, कहना चल चल चलना । उस सत्ता से मिलना, पुनि पुनि पडे न चलना ।। लखना तज कर लिखना सहज शुद्धात्मा को प्रभीष्ट नहीं था तथापि चिरानुभूत संकल्प-विकल्प के संस्कार ने चंचल मन को लिखने के

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