Book Title: Jain Gita
Author(s): Vidyasagar Acharya
Publisher: Ratanchand Bhayji Damoha

View full book text
Previous | Next

Page 5
________________ सम्मत् । समीक्षा हेतु / मेंट प्रकाशक / सम्पादक मनोभावना . विगत वीस मास पूर्व की बात है, राजस्थान स्थित अतिशय क्षेत्र : महावीर जी में महावीर जयन्ती के अवसर पर मसंघ में उपस्थित था। उस समय ममण मुत्तम का, जो मर्व मेवा संघ वाराणसी में प्रकाशित है, विमोचन हुमा । यह एक सर्व मान्य मंकलिन ग्रन्थ है । इसके गंकलनकर्ता जिनेन्द्र वर्णी जी स्व. गणेदाप्रमाद जी वर्णी के अनन्य शिष्यों में एक हैं। प्रापन जैन सिद्धान्त का प्रवन का करके यह नव गीता ममाज के मामने प्रस्तुत किया है । प्रापका यह कार्य प्रेरणाप्रद एवं स्तुत्य । इम ग्रन्थ में चारों अनुयोगों के विषय यथास्थान चित्रित हैं । अध्यात्मग्म में प्रोत-प्रोत ग्रन्थ राज ममयमार, प्रवचन मार, नियममार, अष्टाणि पंचास्तिकाय. द्रव्य मग्रह, गोमटमार आदि ग्रन्थों की गाथाये इममे प्रवर रूप मे मकलित हैं। यह ग्रन्थ आद्योपान्त प्राकृत गाथाम्रो से मपादिन हे। पं० कलागचन्द जी मिद्धान्ताचार्य ने हम ग्रन्थ का मंक्षेप विन्तु मून्दर गद्यानुवाद किया है। जो जन प्राकृत भाषा मे अनभिज्ञ हैं उन्हें या ग्रन्थ गत विषय को समझने में सम्पूर्ण महायक है। ममणसूनम के मूल प्रेरणा-स्रोत समाज मेवी मर्व मेवा-मंघ के निर्माता विबा जी ( बाबा ) हैं। पच्चीमवां वीर निर्वाण महात्मव के उपलक्ष में जैन समाज में प्रापने मांग की थी। यद्यपि जन माहित्य विपूल मात्रा में है नथापि उममे मब लोग लाभ नही पा रहे हैं। अतः ममाज के मम्मुख एक मी कृति प्रस्तुत की जाय कि जिममे जैनतर भी जैन दर्शन मे मान्माननि कर सके। वह कार्य प्राज मानद सम्पन्न हुआ। मन में वहत काल में करवटें ले रहा था कि एक ऐसा काव्य ग्रन्थ का निर्माण किया जाय कि पाबाल, वृद्ध उस ग्रन्थ के मंगीत के माध्यम से अल्प काल में ही पढ़कर जैन दर्शन की उपयोगिता एवं ध्रुव विन्दु के सम्बन्ध में परिचय प्राप्त कर सकें और जीवन को समुन्नत बनाम। किन्तु काल-लब्धि के बिना भी कोई कार्य नही हो मकना और पुरुषार्थ से मुख मोडकर काल लम्धि की प्रतीक्षा करने मे भी काल-लब्धि नहीं प्रा सकती है। इसी बीच बनारम के दो पत्रों के माध्यम से समणमुत्तम के

Loading...

Page Navigation
1 ... 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 ... 175