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जैन-गौरव-स्मृतियां :
के उत्पादन की; सामाजिक प्रथाओं की, राजनैतिक नीतियों की और अन्यान्य आवश्यक बातों की व्यवस्था की। भगवान ने संकट में फँसी हुई तत्कालीन मानव-जाति की नैया को कुशलतापूर्वक पार पहुँचाई। .. . ... मानव-जाति की प्राथमिक आवश्यकताओं को पूर्ण करने की शिक्षा देने और उसको व्यवस्थित कर देने के पश्चात् भगवान ने आत्म-कल्याण का मार्ग अपनाया। उन्होंने सर्वस्व परित्याग कर मुनि-दीक्षा धारण की। वे एकांत वनों में ध्यान धर कर खड़े रहते थे। उन्होंने अखण्ड मौन धारण किया था। शरीर-रक्षा के लिए वे अन्न-जल तक नहीं लेते थे। भगवान के साथ अन्य चार हजार पुरुषों ने भी दीक्षा ली थी। ये लोग किसी गम्भीर चिंतन के बाद आत्म-निरीक्षण की दृष्टि से तो मुनि नहीं बने थे, केवल भगवान् के प्रेम के कारण उनके पीछे हो गये थे । अतः इन्हें आध्यात्मिक आनंद नहीं आ सका। ये भूख-प्यास से घबरा उठे.। भगवान् मौन रहते थे अतः उन्हें पता नहीं चला कि क्या करें और क्या न करें ? मुनि-वृत्ति छोड़ कर ये कुटिया बना कर
और वन-फल खाकर निर्वाह करने लगे । भारतवर्ष में विभिन्न धर्मों का इतिहास यहीं से प्रारम्भ होता है। आचरण और तत्त्वज्ञान दो ही धर्म के अङ्ग हैं। इन दो की मित्रता के कारण ही भिन्न-भिन्न धमें प्रचलित हुए हैं। .
. भगवान् बारह मास तक निराहार रहे। वे सहिष्णुता की उच्च कोटि पर पहुँचे हुए थे अतः विविध कष्टों को सह कर वे आत्म-साधना करते रहे । कठोर साधना के कारण उन्होंने केवल ज्ञान प्राप्त किया। केवल ज्ञान प्राप्त करने के पश्चात् भगवान ने धर्म का उपदेश दिया। उन्होंने स्त्री और पुरुष को समान महत्त्व देते हुए चार तीर्थ की स्थापना की-साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका । भगवान् ने साधु तथा गृहस्थ के कर्तव्यों का उपदेश दिया। यही उपदेश जैन धर्म है। जिन अर्थात् आभ्यन्तर रागद्वेषादि शत्रु को-जीतनेवाले बन कर.रिषभदेव ने यह उपदेश दिया, अतः यह जैन धर्म कहलाता है। इस युग में भगवान् रिषभदेव ही धर्म की आदि करनेवाले सर्व प्रथम तीर्थकर हुए हैं। . .
कतिपय लोग भगवान् रिषभदेव को केवल पौराणिक पुरुष मानते हैं और उनकी यथार्थता में शंका करते हैं परन्तु उनकी यह शंका निर्मूल है। भगवान् रिपमदेव वैसे ही यथार्थ महामानव हैं जैसे राम और कृष्ण ।