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★ जैन- गौरव -स्मृतियां
अहिंसा और सत्य की निरन्तर साधना के बल से उन्होंने अपने समस्त दोषों - विकारों और दुर्बलताओं पर विजय प्राप्त कर ली । साढ़े बारह वर्ष तक दीर्घ तपस्या का अनुष्ठान करने के पश्चात् उन्हें अपने लक्ष्य में सफलता मिली। वे वीतराग बनगये । आत्मा की अनन्त ज्ञान ज्योति जगमगा उठी । वैशाख शुक्ला दशमी के दिन उन्हें केवल ज्ञान और केवल दर्शन का विमल प्रकाश प्राप्त हुआ । तब वे लोगों को हित का उपदेश देने वाले तीर्थङ्कर बने । यह है 'महावीर की कठोर साधना और उसका दिव्य भव्य परिणाम ।
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भगवान् महावीर के उपदेश और उनकी क्रान्ति को समझने के पहले उस काल की परिस्थिति का ज्ञान करना आवश्यक हैं । महापुरुष अपने समय की परिस्थिति के अनुसार अपना सुधार आरम्भ तत्कालीन परिस्थिति करते हैं । अपने समय के वातावरण में आये हुए विकारों में सुधार करना ही उनका प्रधान काम हुआ करता है। अतः हमें यहाँ यह देखना है कि भगवान महावीर के सामने कैसी 'परिस्थिति थी । उस समय भारत के धार्मिक क्षेत्र में वैदिक कर्मकाण्डों का प्राबल्य था । सब तरफ हिंसक यज्ञों का दौरदौरा था । लाखों मूक पशुओं की लाशें यज्ञ की बलिवेदी पर तड़पती रहती थीं । पशु ही नहीं बालक, वृद्ध और 'लक्षण सम्पन्न युवक तर्क देव पूजा के बहम से मौत के घाट उतारे जाते थे । यज्ञों में जितनी अधिक हिंसा की जाती थी उतना ही अधिक उसका महत्व समझा जाता था । ब्राह्मणों ने धार्मिक अनुष्ठानों को अपने हाथ में रख लिया था । देवों और मनुष्यों का सम्बन्ध पुरोहित की मध्यस्थता के बिना हो सकता था । सहायक के तौर पर नहीं बल्कि स्थिर स्वार्थों की रक्षा के लिए प्रत्येक धार्मिक अनुष्ठान में ब्राह्मणों ने अपनी सत्ता अनिवार्य कर दी थी । धार्मिक विधि-विधान भी जटिल बना दिये गये थे ताकि उन्हें सम्पन्न कराने वाले पुरोहित के बिना काम ही न चले। इस तरह ब्राह्मण वर्ग ने अपना एकाधिपत्य जमा रखा था । उन्होंने अपनी सत्ता को बनाये लिए. भूत खड़ा कर रक्खा था । जिसके अनुसार वे समाज के एक वर्ग को सर्वथा हीन, सानते थे । के आधार पर उन्होंने शूद्रों दिया था । स्त्रियों की स्वतः
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अनुष्ठानका स्वातन्त्र्य प्राप्त