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* जैन-गौरव-स्मृतियां ★
...... साधनाकाल में भगवान् महावीर ने दीर्घ तपस्वी बन कर असह्य परीषह और उपसर्ग सहन किये। कठोर शीत, गरमी, डाँस-मच्छर और नाना शुद्र जन्तु जन्य परिताप को उन्होंने समभाव से सहन किया । बालकों ने कुतुहल वश उन्हें अपने खेलका साधन बनाया, पत्थर और कंकर फेंके। अनार्यों ने उनके पीछे कुत्ते छोड़े। स्वार्थी और कामी स्त्री-पुरुषों ने उन्हें भयंकर यातनाएँ दीं। परन्तु उन्होंने अरक्तद्रिष्ट भाव से सब कुछ सहन किया । वे कभी श्मशान में रह जाते, कभी खंडहर में, कभी जंगल में और कभी वृक्ष की छाया में । उन्होंने कभी अपने निमित्त बना हुआ आहार-पानी ग्रहण नहीं किया । शुद्ध भिक्षाचर्या से जो कुछ जैसा वैसा मिला उसीसे . - निर्वाह किया । उन्होंने साढ़े बारह वर्ष के लम्बे साधना काल में सब मिलाकर ३५० से अधिक दिन भोजन नहीं किया। कितनी कठोर साधना है !
रह जाते, कभी खंडात बना हुआ आता उससे
.. उन महासाधक ने कमी प्रमाद का अवलम्बन नही लिया। सदा - अप्रमत्त होकर साधना में लीन रहे । रात्रि में भी निद्रा का त्याग कर वे ध्यानस्थ रहते। मानापमान को उस जितेन्द्रिय महापुरुष ने समभाव से सहन किया । इस प्रकार आन्तरिक और बाह्य सब प्रकार के कष्टाको उन्होंने जिस समभाव से सहन किया वह सचमुच विस्मय का विषय है ! उनकी साधना काल का जीवन अपूर्णता से पूर्णता की ओर प्रस्थित एक अप्रमत्त संयमी का खुला हुआ जीवन है। उन्होंने अपने जीवन के द्वारा अपने उपदेशों की व्यावहारिकता सिद्ध की है। जो कुछ उन्होंने अपने जीवन म किया, जिस कार्य को करके उनने अपना साध्य सिद्ध किया वही उन्होंने दूसरों के सामने रक्खा । उससे अधिक कोई कठिन नियम उन्होंने दूसरों के लिए नहीं बताये । सचमुच महावीर का. जीवन मानवीय आध्यत्मिक विकास का एक जीता जागता आदर्श है । वे केवल उपदेश देने वाले नहीं परंतु स्वयं आचरण करने के बाद दूसरों को मार्ग बताने वाले सच्चे महापुरुष थे। .
.. भगवान महावीर ने संसार सुखों को छोड़कर संयम का मार्ग अपजात समय प्रतिज्ञा की थी कि मैं किसी भी प्राणी को पीड़ा न दूंगा, सर्वसत्वों स मत्रो रक्खू गा, अपने जीवन में जितनी भी बाधाएं. उपस्थित होंगी उन्हें बना किसी दूसरे की सहायता के समभाव पूर्वक सहन करूँगा । इस प्रतिज्ञा का एक वीर पुरुष की तरह इन्होंने निभाया, इसीलिए वे महावीर कहलाये ।