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जैन-गौरव-स्मृतियां ★
भी पाप नहीं किया जाता । छूरे से तेज चक्र द्वारा जो इस पृथ्वी के प्राणियों के एक मांस का खलिहान बनादे, मांस का पुज बना दे तो भी इसके कारण उसको पाप नहीं होता, पाप का, आगम नहीं होता । यदि घात करते-करातें काटते-काते, पकाते - पकवाते गंगा के दक्षिण तीर पर भी जाए तो भी इसके कारण उसको पाप नहीं-पाप का आगम नहीं होगा । दान देते दिलाते, यज्ञ करते कराते यदि गंगा के उत्तर तीर भी जाए तो इसके कारण उसको पुण्य नहीं, पुण्य का आगम नहीं होगा । दान, दस, संयम से, सत्य बोलने से न पुण्य है, न पुण्य का आगम है । "
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सामञ्जफल (दीग्घ निकाय) सूत्त में इस वाद को अक्रियावाद कहा गया है । सूत्रकृताङ्ग में ऐसे वाद का वर्णन है । इसे अकारकवाद कहा गया है । विद्वानों का मानना है कि "आत्मा अपने मूल स्वभाव में निष्क्रिय है और वह पुण्य-पाप से परे हैं" इस सिद्धान्त को यदि अन्तिम सीमा तक लिया जाय तो यह वाद फलित होता है ।
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बौद्ध ग्रन्थ में पूरणकश्यप को अचेलक - नग्न तपस्वी तथा संघ स्वामी, गणाचार्य ज्ञानी, यशस्वी और मत स्थापक के रूप में वर्णित किया है ।
ककुद . कात्यायन
यह शाश्वतवाद के प्ररूपक कहे जाते हैं। इनके सिद्धान्त का वर्णन इस प्रकार पाया जाता है: - "यह जगह सात काय-पदार्थ का बना हुआ है। यह सप्तका अकृत, अनिर्मित, अवध्य, कूटस्थ और स्तम्भवत् अचल है । यह चलित नहीं होते, विकार को प्राप्त नहीं होते, न एक-दूसरे को हानि पहुंचाते हैं, न एक-दूसरे के लिए पर्याप्त है । यह सप्तकाय इस प्रकार है:- पृथ्वीकाय, अप्काय, तेज:काय, वायुकाय, सुख, दुःख और जीवन । इन सप्तकाय को मारनेवाला, घात करानेवाला, सुननेवाला, सुनानेवाला, जाननेवाला, जतलानेवाला कोई भी नहीं है। जो तीक्ष्ण शस्त्र से किसी का शीप भी काट डाले तो भी कोई किसी को प्रारण से नहीं मारता । सात कार्यों से अलग खाली जगह में वह शस्त्र गिरता है । ""
ककुद कात्यायन का यह वाद "आत्मा को कोई नहीं मार सकता है, कोई नहीं छेद सकता है" गीता में वर्णित इस वाद को विशेष स्पष्ट किया
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