Book Title: Jain Dharmamruta
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 11
________________ जैनधर्मामृत कोठिया और जुगलकिशोरनी मुख्तार इसे आप्तमीमांसाकारकी ही और दूसरी तीसरी शतीकी रचना मानते हैं ।" स्वामी समन्तभद्रने रत्नकरण्डकके अतिरिक्त आतमीमांसा, स्वयम्भून्तोत्र, युक्त्यनुशासन, स्तुतिविद्या श्रादि अनेक ग्रन्थोंकी रचना की है, जो कि उनके प्रकाण्ड पाण्डित्यकी द्योतक हैं । १० रत्नकरण्डकसे सम्यग्दर्शन, श्रावकत्रत और समाधिमरण-सम्बन्धो ५७ श्लोक प्रस्तुत ग्रन्थके दूसरे, चौथे और तेरहवें अध्यायमें संगृहीत किये गये हैं । रत्नकरण्ड श्रावकाचारके अभी तक विभिन्न संस्थानोंसे बीसों संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं, पर समन्तभद्र के इतिहास और प्रभाचन्द्रकी संस्कृत टीकाके साथ इसका एक सुन्दर संस्करण माणिकचन्द्र जैन ग्रन्थमाला, हीराबाग, बम्बई - ४ से विक्रम संवत् १६८२ में प्रकट हुआ है । इस ग्रन्थपर एक विस्तृत हिन्दी टीका स्व० पं० सदासुखनीने ग्रानसे लगभग ९० वर्ष पूर्व लिखी है जो कि जैन ग्रन्थ कार्यालय बम्बई और सस्ती ग्रन्थमाला दिल्ली से कई बार प्रकाशित हो चुकी है, तथा जिसका मराठी अनुवाद भी जीवराज ग्रन्थमाला सोलापुरसे प्रकाशित हुआ हैं । ३. पूज्यपाद और समाधितन्त्र एवं इष्टोपदेश 'समाधि' क्या वस्तु है और उसके द्वारा यह संसारी प्राणी श्रात्मासे परमात्मा कैसे बन जाता है, इस बातका बहुत ही सुन्दर विवेचन १०५ श्लोकों द्वारा समाधितन्त्रमें किया गया है । इस ग्रन्थसे जैनधर्मामृतके पहले और चौदहवें अध्यायमें ६२ श्लोक संग्रह किये गये हैं । १. देखिए, अनेकान्त वर्ष ८ ६ ( १६४४-४५) तथा वर्ष १४ की प्रथम किरण में डॉ० हीरालाल, पं० दरवारीलाल कोठिया और पं० जुगलकिशोर मुख़्तार के लेख ।

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