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जैन धर्म का प्राचीन इतिहासभाग २
करके एकान्त स्थान में निर्भय हो योग-साधना करते थे। मीन दिन में अधिक एक स्थान पर नहीं ठहरते थे। किन्तु वर्षा ऋतु को बिताने के लिए वे चार महीने एक स्थान पर अवश्य ठहरते थे और मौनपूर्वक ताप का अनु
टान बरते थे। वे अट्ठाईस मुलगणों का बड़ी दहनाचे पालन करने थे। इस तपस्त्री जीवन में महावीर ने अनेक देगा, नम गंभार ग्रामा ग्रादि विविध स्थानों में बिहार कर तप द्वारा प्रात्म-शोधन किया। ब इन्द्रियजयी कपायों के. रमना सुखाने के लिए निरन्तर प्रयत्न करते थे। ध्यान में स्थिन हो यात्मतत्व का चिन्तन करने थे। वे ध्यान में इस तरह स्थित होते थे जैसे कोई पापाण-मूति स्थिन हो । वे हलन-चलन से रहित निष्कम्प मुनही जाने थे।
केवलज्ञान
भगवान महाबीर ने अपने साधु-जीवन में अनशनादि द्वादश कठोर दुर्धर एवं दुष्कर तपों का अनुष्ठान किया। भयानक हिंस्र जीवों मे भरी हई अटवी में विहार किया । डांस-मच्छर, शीत, उष्ण और वर्षादिजन्य घोर काटों को महा। साथ ही, उपमर्ग-परिपहों को सहन किया परन्तु दूसरों के प्रति अपने चित्त में जरा भी विकृति को स्थान नहीं दिया । यह महावीर को महानता और सहनशीलता का उच्च आदर्श है। उन्होंने बारह वर्ष पर्यन्त मौनपूर्वना पाठोर तपश्चर्या की। भ्रमण महावीर शत्रु-मित्र, सुख-दुख, प्रशंसा-निन्दा, लोह-कांचन और जीवनमरणादि में सम भाव को-मोह क्षोभ से रहित बीतराग भाव को–अबलम्बन किये हुये थे। वे स्व-पर कल्पना रूप ग्रहकार गमलारात्मक विकल्पों को जीत चके थे और निर्भय होकर सिंह के समान ग्राम-नगरादि में स्वच्छन्द विचरते थे । महावीर अपने प्राध-जोवन में बपो ऋतु को छोड़कर तीन दिन से अधिक एक स्थान पर नहीं ठहरे। उनके मौनी-साधु जीवन से भी जनता को विशेष लाभ पहुंचा था । अनेकों को अभयदान मिला, अनेकों का उद्धार हना और अनेक को पथ-प्रदर्शन मिला । भगवान महावीर ने श्रमण अवस्था में श्रावस्ती, कौशाम्बी, वाराणसी, राजगृह, नालन्दा, वैशाली मादि नगरों तथा राढ़ आदि देशों में बिहार किया और अपनी योग-साधना में निष्ठता प्राप्त की। कौशाम्बी में तो चन्दना की बेड़ी टूट गई। उसने नवधाभक्ति से उन्हें जो ग्राहार दिया, उससे उसने सातिशय पूण्य का संचय किया। उसे सेठानी की कैद से छुटकारा मिला, दुःख का अवसान हमा।
यद्यपि यमण महावीर के मुनि-जीवन में होने वाले उपमगों का दिगम्बर साहित्य में श्वेताम्बर परम्परा के साहित्य के समान उल्लेख उपलब्ध नहीं होना, किन्तु पांचवी शताब्दी के प्राचार्य यतिवृषभ रचित तिलोय पण्णत्ती के चतृाधिकार गत १६२० नम्बर की गाथा के निम्न-सत्तम तेबीसतिम तित्थयराणं च उवसम्गों' वाक्य में सातव, तेईसवें और अन्तिम तीर्थंकर महावीर के सोपसर्ग होने का स्पष्ट उल्लेख किया गया है। इससे महावीर के सोपसर्ग जीवन का स्पष्ट आभास मिल जाता है। भले ही उनमें कुछ अतिशयोक्ति से काम लिया गया हो; परन्तु श्रमण महावीर के सोपसर्ग साधु जीवन से इनकार नहीं किया जा सकता । उत्तर पुराण में महावीर के सोपसर्ग जोवन की घटना का उल्लेख मिलता है। उसमें लिखा है कि-किसी समय भगवान महावीर भ्रमण बरते हए उज्जैनी की प्रतिभक्तक स्मशान भूमि में प्रतिमा-योग ध्यान से विराजमान थे। उन्हें देख कर महादेव नाम के रुद्र ने अपनी दुष्टता मे उनके धैर्य की परीक्षा लेनी चाही। अतः उसने रात्रि के समय अनेक बड़े बड़े बैतालों का रूप बनाकर उपसर्ग किया। वे तीक्ष्ण चमड़ा छील कर एक दूसरे के उदर में प्रवेश करना चाहते थे।
१. सम-सतु-बन्धु बग्गों सम-सुह-दुवाको पसंस-णिद-समो। सम-लोट-कंचरणो पुण जीविद-मरणे समो समणो ।।
--प्रवननसार ३-४१