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प्राक्कथन
'जैन धर्म का प्राचीन इतिहास और महावीर संघ परम्परा' नाम का यह ग्रन्थ पं० परमानन्द शास्त्री का लिखा हुआ है। परमानन्द शास्त्री जैन समाज के प्रसिद्ध विद्वान हैं। ग्रन्थ के ४१६ पेज मैने मग्गरी निगाह मे देखे हैं यह ग्रन्थ भगवान महवीर की पच्चीस सौ वीं निर्वाण जयन्ती के उपलक्ष्य में लिया गया है। इस पुनीत अवसर पर परमानन्द जी का यह ग्रन्थ सराहनीय महत्वपूर्ण और सर्वत्र संग्राह्य है। ग्रन्थ सुन्दर है जैनाचार्यो, अपभ्रंश कवियों और भट्टारकों के इति वृत्त के साथ जैन संघ की परम्पग पर अच्छा प्रकाश डालता है। ग्रन्थ में ईसा पूर्व तीसरी शताव्दी से १८ वीं शताब्दी तक के, जो महान जैनाचार्य हए उनका क्रमिक इतिहास मंक्षिप्त होते हुए भी उनको जीवन रचनामों पर पर्याप्त प्रकाश डालता है। ग्रन्थ में जैन धर्म व संस्कृति के कृमिक विकास का मंक्षिप्त व सरल रूप देने का प्रयत्न किया गया है।
ग्रन्थ की प्रस्तावना में 'थमण संस्कृति' पर अच्छा प्रकाश डाला गया है। 'श्रमण' शब्द के दो अर्थ हैं, जो सबमें समत्व देखे वह निर्मोही सच्चा श्रमण है, वह सबको समभाव से देखता है। वह अपने अङ्ग प्रत्यग मे तपश्चर्या कर आत्मा को ऊंचा उठाता है। इसी बात को ध्यान में रखते हुए श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने इन्द्रियों का निग्रह करने का उपदेश दिया था।
समसत्तु बंधुवग्गो समसुखदुक्खो पसंसणिदसमो। समलोदकंचणो पुण जीवित मरणो समो समणो ।।
(प्रवचनसार ३-४१) जिसने इन्द्रियों का निग्रह किया, उसने क्या नहीं किया है । इसी निग्रह के अनेक प्रकार हैं-श्रमणों के कई विभाग, श्रमण, वातग्शना, तपस्वी आदि पठनीय हैं। ऋग्वेद में वातरशना और केगी आदि के नाम की प्राप्ति प्रानन्द दायिनी है, उसमे पता लगता है कि जैन संस्कृति उस समय में पूर्वतन थी। कई विद्वान इसे ई०पू० २५०० वर्ष मानते हैं, और पांचवीं सहस्राब्दी मे पूर्व भी कई ने समझा है, कई ने हडप्पा और मोहन जोदड़ों में इसके प्रवशेषों को देखा है।
श्री परमानन्द जी ने, जैन संस्कृति के बारे में जो कुछ लिखा है वह सब अध्येय है। जैन इतिहास का इतना वर्णनात्मक इतिहास अब तक हमारे सामने नहीं पाया है। आशा है कि अन्य भाग भी शीघ्र हो हमारे सामने पहंच कर छात्र मण्डल की ज्ञान वृद्धि करेंगे।
__ लगभग ७०० प्राचार्यों एवं प्राकृत, अपभ्रंश, संस्कृत और कन्नड भाषा के लेखक कवियों का लघु परिचय रचनाओं पर टिप्पणियाँ बहुत परिश्रम से संकलित की गई हैं। भगवान महावीर के द्वारा प्रारब्ध धर्म तथा जीवन परिचय से यह रचना प्रारम्भ कर लेखक ने ग्यारह गणधरों, पांच श्रुत केवलियों द्वारा इस धर्म के प्रचार का उल्लेख करते हए जैन संघ के इतिहास का भी यथोचित विस्तार से विवेचन किया है। समग्र साहित्य के रूचिकर अध्ययन के लिये यह पुस्तक पठनीय है। ग्रन्थ के अवलोकन से पता चलता है कि परमानन्द जी ने इसके लिखने में महान श्रम किया है। उन्होंने अपने स्वास्थ्य की विशेष परवाह न करते हुए ग्रन्थ में इतनी अधिक सामग्री एकत्रित की है। जो कार्य बड़े २ विद्वान भी नहीं कर पाते उसे परमानन्द जी ने सम्पन्न किया है। विद्वान लेखक ने जो परिश्रम किया है