Book Title: Jain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Author(s): Parmanand Jain
Publisher: Rameshchandra Jain Motarwale Delhi

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Page 21
________________ प्रस्तावना ११ __बौद्ध परम्परा में भी श्रमणों का उल्लेख है। धम्मपद में लिखा है कि जो अणु और स्थूल पापों का पूर्ण रूप से शमन करता है वह पापों का शमन करने के कारण समण है। "यो च समेति पापानि अणुथूला निसव्व सो। सम्मितत्ताति पापानं समणेति पवुच्चति ॥” (१६-१०, इसी धम्मपद (२६-६) में एक अन्य स्थान पर लिखा है 'समुचरिता समणोति वुच्चति'। समानता की के कारण 'समण' कहा जाता है धम्मपद (१६-६) गे बतलाया है कि व्रत हीन तथा झट वोलने वाला व्यक्ति केवल सिर मुड़ा लेने मात्र से 'समण' नहीं हो जाता, जा इच्छा और लोभ से व्याप्त है वह 'समण' कैसे हो सकता है ? - 'मुंडके न समणो अव्वत्तो अलकं भण। इच्छा लोभ समापन्नो समणो कि भविस्सति ।" प्राचार्य कुन्द कुन्दने श्रमण धर्म का सुन्दर व्याख्यान किया है, और बतलाया है कि जो दुःखो से उन्मुक्त होना चाहता है उसे श्रामण्य धर्म का स्वाकार करना चाहिए—“पाडवज्जद सामण्णं जद इच्छदि दक्खपरिमोक्खं'। इससे श्रमण धर्म की महत्ता का बोध हाता है। जिनमनाचार्य ने महापुगण म ऋपभदेव को वात रसना बतलाते हए उसका अर्थ नग्न किया है.--दिग्वासा वातरसनो निग्रंन्थेशो निरम्बरः। (२५-२-४)। वैदिक साहित्य में भी श्रमण का उल्लख उक्त अथ में किया गया है। भागवत के (१२-३-१६) के अनुसार श्रमण जन प्रायः सन्तुष्ट करुणा आर मंत्रा भावना से युक्त, शान्त दान्त, तितिक्षु, अत्मा न रमण करने वाले और समदृष्टि कह गय है। सन्तुष्टाः करुणा मंत्राः शान्ता दान्तास्तितिक्षवः । प्रात्मारामाः समदशः प्रायशः श्रमणा जना ।। इसी ग्रन्थ मे वातरशना श्रमणो को यात्मविद्या विशारद नपि, शान्त, सन्यासी ओर अमल कह कर ऊर्ध्वगमन द्वारा उनके ब्रह्म लोक में जाने की बात कही है "श्रमणा वातरशना प्रात्मविद्या विशारदः" (श्री भागवत् १२-२-२०) "वातरशनाय ऋषयः श्रमणाऊर्ध्वन्थितः । ब्रह्माख्य धाम ते यान्ति शान्ताः सन्यासिनोऽमलाः (श्री भाग० वैदिक साहित्य में 'श्रमण का उल्लेख अनेक ग्रन्थों में मिलता है ऋग्वेद में वात रशना मुनि का उल्लेख किया गया है, उसमें उनके मात भेद भी बतलाय है। पर उन सब वातरशना मुनियों में ऋषभ प्रधान थे। क्याकि अहंत धर्म को शिक्षा देने के लिए उनका अवतार हुआ बतलाया है। "मुनयो वातरशना पिगंगा वशते मला। वात स्थान ध्राजि यान्ति यह वासो अविक्षत ।। उन्मादिता मौनेयेन वातां प्रातस्थिमा वयम। शरीरेहस्माकं यूय मर्ता सा अभिपश्यथ ।।" (ऋग्वेद १०-१३६, २, ३) अतीन्द्रियार्थ दर्शी वातरशना मूनि मल धारण करते है जिससे वे पिगल वर्ण दिखाई देते है, जब वे वाय की गति को प्राणोपासना द्वारा धारण कर लेते है-रोक लेते है-तव व अपने तपश्चरण की महिमा से दीव्यमान हो कर देवता रूप को प्राप्त हो जाते है । सर्वलौकिक व्यवहार को छोड़कर हम मौन वृत्ति से उन्मत्त वत (उत्कृष्ट प्रानन्द सहित) वायु भाव को-अशरीरी ध्यान वृत्ति को प्राप्त होते है, पार तुम साधारण जन हमारे वाह्य शरीर मात्र को देख पाते हो, हमारे सच्चे प्राभ्यन्तर स्वरूप को नहीं, ऐसा वे वातरशना मुनि प्रकट करते है। ऋग्वेद को उक्त ऋचाओं के साथ केशी की स्तुति की गई है-. १. जूनि-वातजूनि-विप्रजूनि-वृषाणक-करिकृत-एतशः ऋषिभृङ्ग, एते वातर शना मनुयः । (ऋग्वेद म० १० सूक्त १३५)

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