Book Title: Jain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Author(s): Parmanand Jain
Publisher: Rameshchandra Jain Motarwale Delhi

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Page 24
________________ ૪ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ सिद्धान्त लोक में फैले हुए हैं। अब समय आ गया है कि विश्व का संरक्षण उनके पावन सिद्धान्तों के प्राचरण से ही हो सकता है इस युग में परमाणु की अनन्त शक्ति और उनकी दाहकता की विभीषिका से लोक भयभीत हैं, दुःखी और चिन्ता ग्रस्त है । उससे यदि विश्व को संरक्षित करना है तो महावीर के अहिंसा और अनेकान्त श्रादि सिद्धान्तों को जीवन में प्रवाहित करना होगा, उनको जीवन के व्यवहार में लाये विना विश्व में शान्ति स्थापित नहीं हो सकती । क्योकि साम्राज्य की लिप्सा और अहंकार ने मानवता का तिरस्कार और दुरुपयोग किया है । और किया जा रहा ,जिसका परिणाम प्रशान्ति और विनाश है । महात्मा बुद्ध के समय भगवान महावीर को 'णिग्गंठ णात पुत्र' कहा जाता था, और उनका शासन भी 'निग्गंठ' नाम से प्रसिद्ध था । अशोक के शिलालेखों में भी 'णिग्गंठ नाम से उसका उल्लेख है । महावीर के बाद 'णिग्गठ' श्रमण परम्परा द्वादश वर्षीय दुर्भिक्षादि के कारण दो भेदों में विभक्त हो गई। एक णिग्गंठ श्रमण संघ दूसरा श्वेत पट श्रमण सघ । इन दो भेदों का उल्लेख कदम्ब वश के लेखों में मिलता है" । पश्चात् निर्ग्रन्थ महाश्रमण सघ हो मूल सघ के नाम से लोक में विश्रुत हुआ । मूलसंघ परम्परा ही भगवान महावीर की निर्ग्रन्थ श्रमण परम्परा है, दूसरी परम्परा मूल परम्परा नहीं कही जा सकती। इसी से इस ग्रन्थ मे भगवान महावीर की मूल निर्ग्रन्थ संघ परम्परा के आचार्यो व विद्वानों, भट्टारको ओर कवियों का यहां परिचय दिया गया है । दूसरी परम्परा के सम्बन्ध में फिर कभी विचार किया जायेगा। इस परम्परा की प्रतिष्ठा बुन्दकुन्दाचार्य जस निर्ग्रन्थ श्रमणा से हुई । उनकी कृतिया वस्तु तत्व की निदर्शक और लोक कल्याणकारी है । उनकी समता अन्यत्र नही पायी जाती। इस परम्परा में अनेक महान ग्राचार्य हुए, जिनकी कृतियां लोक में प्रसिद्ध हुई । दार्शनिक विद्वानों में गृद्धपिच्छाचार्य, समन्तभद्र, पात्र केसरी, सिद्धसेन, पूज्यपाद, प्रकलक देव, सुमतिदेव और विद्यानन्दादि महान आचार्य हुए। जिनके व्यक्तित्व और कृतित्व से लोक में श्रमण संस्कृति का प्रसार हुआ । इस परम्परा में भी अनेक सघ-भेद हुए, गण-गच्छादि हुए, परन्तु मूल परम्परा बराबर संरक्षित रही, और रह रही है । भारतीय इतिहास में शिलालेख ताम्र पत्र, लेखक प्रशस्तियां, ग्रन्थ प्रशस्तियां, पट्टावलियां और मूर्तिलेखों की महत्ता से कोई इकार नही कर सकता। इनमें उपलब्ध साधन सामग्री इति वृत्तों के लिखने में सहायक ही नहीं होती । प्रत्युत अनेक उलझी हुई समस्याओं के सुलझाने में योगदान देती है । जैन साहित्य और इतिहास के लिखने में उनकी उपयोगिता लिये बिना किसी आचार्य विशेष, विद्वान कवि या भट्टारक, राजा आदि का परिचय लिखना सम्भव नही होता । इसी से इस ऐतिहासिक सामग्री का संकलन होना आवश्यक है। इसके साथ पुरातत्त्व सबंधी अवशेषों आदि का उल्लेख भी प्रावश्यक होता है । उससे उसमें प्रामाणिकता आ जाती है । जब हम किसी प्राचार्य विशेष आदि का परिचय लिखने बैठते है तब समुचित सामग्री के संकलन के प्रभाव में एक नाम के अनेक विद्वानों आदि के समय निर्णय करने में बड़ी कठिनाई का अनुभव करना पड़ता है । तब हमें उक्त सामग्री की उपयोगिता की महत्ता ज्ञात होती है और हम उसके सकलन की आवश्यकता का अनुभव करते है । विद्वान इस कठिनाई का अनुभव करते हुए भी उसके सकलन का प्रयत्न नहीं कर पाते, समाज और श्रीमानों का ता उस ओर ध्यान ही नही है। विद्वानों के सामने अनेक समस्याएं हैं, जिनके कारण उसमें प्रवृत्त नहीं हो पाते । उनमें सबसे पहला कारण अर्थाभाव है दूसरा कारण गृही समस्याएं है और तीसरा कारण सामग्री की विरलता और समय की कमी है । यद्यपि वर्तमान में ऐतिहासिक विद्वानों के समक्ष बहुत कुछ ऐतिहासिक सामग्री बिखरी हुई यत्र-तत्र दृष्टि गोचर होती है । कुछ प्रकाश में आ चुकी है, कुछ प्रकाश में लाने के प्रयत्न में है । और अधिकांश सामग्री ग्रन्थ भण्डारों, मूर्ति लेखों और ग्रन्थ प्रशस्तियों में निहित है । प्रतएव इतिवृत्तों की सामग्री का संकलित होना अत्यन्त प्रावश्यक है । इसी आवश्यकता को देखते हुए मेरा विचार बहुत दिनों से महावीर संघ परम्परा के कुछ श्राचार्यो, विद्वानों, भट्टारकों, कवियों श्रादि का जैसा कुछ भी परिचय मिलता है, संकलित करने की भावना चल रही १. इंडियन एण्टी क्वेरी जि० ६ पृ० ३७-३८

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