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प्रस्तावना
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इस सूक्त के ऋचा की प्रस्तावना में निरुक्त में 'मुदगलस्य हृता गाव । आदि श्लोक उद्धृत किये गये है, जिन में बतलाया है कि मुद्गल ऋषि की गायो को चोर चुरा ले गए थे, उन्हे लौटाने के लिए ऋषि न केशी वृपभ का अपना सारथी बनाया, जिसके वचन से वे गौएँ आगे न भागकर पीछे की ओर लोट पड़ी इस ऋचा का भाष्य करते हुए सायणाचार्य ने केशी और वृषभ का वाच्यार्थ पृथक् बतलाया है, किन्तु प्रकारान्तर से उसे स्वोकृत भी किया है - " प्रथवा श्रस्य सारथिः सहाय भूतः प्रकृष्ट केशी वृषभ श्रवाचीत भ्रशमशब्दयत्" इत्यादि ।
मुद्गल ऋषि के सारथी (विद्वान नेता ) केशो वृषभ जो शत्रुओं का विनाश करने के लिए नियुक्त थे, उनकी वाणी निकली, जिसके फलस्वरूप जो मुद्गल ऋषि की गौव (इन्द्रिया) जुते हुए दुर्घररथ ( शरार ) के साथ दौड़ रही थी वे निश्चल होकर मौदगलानी ( मुद्गल की स्वात्मावृत्ति) को और लाट पड़ा, अथात् मुद्गल का इन्द्रियों, जो स्वरूप से पराड़ मुख हा अन्य विपया की आर भाग रहा था व उनके याग युक्त ज्ञाना नेता कशा वृषभ के धर्मोपदेश को सुनकर अन्तर्मुखी हा गई - अपन स्वरूप में प्रविष्ट हो गई ।
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ऋग्वेद क ( ३-५८-३) सूक्त मे - “त्रिधा बद्धो वृषभो रोर वीति महादेवो मर्त्यान विवश । बताया गया है कि (दर्शन-ज्ञान- चरित्र से अनुबद्ध वृषभ ( ऋषभ) न घापणा का और व एक महान् दत्र के रूप मत्या न प्रविष्ट हुए । इस तरह वद, भागवत और उपनिषद में श्रमणा के तपश्चरण की महत्ता का भी वणन उपलब्ध होता है वह महत्त्वपूर्ण और उसका सम्बन्ध ऋषभ देव का तपश्चया स है | श्रमणा न ग्रात्म-साधना का जात आदर्श लाक में उपस्थित किया है तथा ग्रहिसा की प्रतिष्ठा द्वारा जा श्रात्म निभयता प्राप्त का। उसने मण सम्कृति का गोरव सुरक्षित है । श्रमण संस्कृति न भारताय संस्कृति का जो ग्रहिसा अपरिग्रह अनन्तरमाद्वार आदि महत्त्वपूर्ण सिद्धान्ता का अपूर्व दन दी है, उससे भारताय सन्त परम्परा यशवा हुर है। भगवान मदव इस सन्त परम्परा एवं श्रमण संस्कृति के आद्य प्रतिष्ठापक थे । उनका इस भूतल पर अवतरित हुए बहुत काल व्यतीत हा गया है, ता भी उनकी तपश्चया की महत्ता और उनका लोक कल्याण कारा उपदेश भूमंडल में प्रभा वर्तमान है व श्रमण संस्कृति के केवल संस्थापक हा नही थे किन्तु उन्होन उस उज्जीवित और पाललवापत भी किया था । उनक अनुयायी २३ ताथकरा ने उसका प्रचार एवं प्रसार किया है। इन चात्रीस ताथकरा मातम तान तोथकरा को - नमिनाथ, पाश्वनाथ और महावोर का इतिहासज्ञा न ऐतिहासिक महापुरुष मान लिया है और वाइसव तीथकर नेमिनाथ ने अहिसा के लिए वेवाहिक कार्य का परित्याग कर अपने का आत्म-साधना में लगाया । यह श्री कृष्ण के चचरे भाई थे ।
पाश्वनाथ तईसव तीथकर थे जा बनारस के राजा विश्वमेन श्रार वामा दवी के पुत्र थे । उन्हान तपश्चरण द्वारा आत्म-सिद्धा प्राप्त का आर विहार तथा कलिगादि दशा में उपदेश द्वारा श्रमण संस्कृति का प्रसार किया । श्रार जनता का सन्मार्ग म लगाया ।
पारवनाथ से २५० वर्ष बाद महावीर ने भरी जवानी में राज्य वभव का परित्याग कर आत्म-साधना का अनुष्ठान किया, और पूर्ण ज्ञानी बन जगत का 'स्वय सुख पूर्वक जियो, और दूसरो को भी सुख पूर्वक जीने दो' के सिद्धान्त का कवल प्रसार ही नही किया । प्रत्युत उस अपन जावन में उतार कर लोक में अहिसा का पूर्ण प्रतिष्ठा प्राप्त क। । उनका कल्याणकारी मृदु वाणी न अनेकान्त दृष्टि द्वारा जगत के विराधा का दूर किया। उनम हिसार समता की भावना का प्रात्ताजत किया। और ग्रहमा द्वारा विश्व शान्ति का लाक मे प्रगार किया उससे यज्ञादि हिसा का प्रतीकार हुआ। पशुकुल को अभय मिला। और जनता में अहिसा के प्रति अनुराग ही नही हुआ, अनेकाने उस अपने जीवन का आदर्श बनाया। उनके बाद उनकी सघ परम्परा के श्रमणा द्वारा उन्ही ला हितकारी सिद्धान्तो का प्रसार किया जाता रहा। और अब भी उनके सिद्धान्तो के अनुयायी मौजूद हे । जा अहिसा मे विश्वास रखते है । उन्ह अवतरित हुए २५०० वर्ष पूरे हो रहे है तो भी उनका उपदेश और उनके मालिक
१. भारतीय सरकृति मे जनघम का योगदान पृ० १५, १६
२. भागवत पुराण ५-६, २८-३१) ऋषभदेव की तपश्चर्या का वर्णन है ।